Sunday, January 30, 2011

सरकारी खर्चे पर चुनाव से पहले..


चुनाव को धनबल से मुक्त करने के लिए सरकारी खर्चे पर चुनाव लड़ने देने का प्रस्ताव सिद्धांतत: आकर्षक है लेकिन सरजमीं पर इसके सकारात्मक परिणाम निकलने की उम्मीद बेहद कम हैं। उम्मीदवारों के चुनावी खर्चे का सही-सही हिसाब कर सकने और तय रकम से ज्यादा पैसा चुनाव में खर्च नहीं होना सुनिश्चित किये जाने तक सरकारी खर्चे पर चुनाव लड़ने की व्यवस्था का कोई मतलब नहीं बनता। इसलिए कि ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा दिया जाने वाला पैसा, उम्मीदवारों द्वारा पहले से किए जाने वाले खर्च में जुड़ जाएगा और चुनाव व्यवस्था और भी खर्चीली साबित होगी
जब भी देश में चुनाव सुधार की बात चलती है तो मोटे तौर पर दो बुराइयों से इसे मुक्त करने की सबसे ज्यादा वकालत की जाती है। इसमें पहली है-चुनावों को अपराधियों से मुक्त किया जाए। अर्थात चुनाव में बाहुबल का दखल खत्म किया जाए। दूसरी धनबल से चुनाव को मुक्त किया जाए। दरअसल, धनबल और बाहुबल के प्रदर्शन में लोकतंत्र कुचला जाता है। वैसे अगर हम चुनाव सुधार की अहमियत समझने की कोशिश करें तो यह बात सामने आती है कि जब तक राजनीतिक दलों के अंदर या यों कहें कि उनकी कार्यपद्धति में सिरे से बदलाव नहीं होगा, चुनाव सुधार की तमाम कोशिशें अंधेरे में तीर चलाने के समान ही होंगी। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मुख्यधारा के अधिकतर सियासी दलों में आंतरिक लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं है। जब तक इन दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होगा और हर स्तर पर पारदर्शिता नहीं होगी, किसी भी बाहरी दबाव या बंदोबस्त का बहुत सकारात्मक परिणाम नहीं निकलने वाला है। कुछ लोग चुनाव को धनबल से मुक्त करने के लिए सरकारी खर्चे पर चुनाव लड़ने की व्यवस्था किए जाने की वकालत करते हैं। सैद्धांतिक तौर पर तो यह प्रस्ताव बेहद आकर्षक है लेकिन भारत के संदर्भ में व्यावहारिक धरातल पर इसके सकारात्मक परिणाम निकलने की उम्मीद बेहद कम हैं। इसकी मूल वजह यह है कि यहां भ्रष्टाचार की जडं़े काफी गहरी हैं। इसके चलते अच्छी से अच्छी योजना क्रियान्वयन के स्तर पर नकारा बना दी जाती है। सरकारी खर्च पर चुनाव लड़ने के प्रस्ताव के साथ ऐसा ही होने का खतरा है। यह खतरा इसलिए भी बढ़ा हुआ महसूस होता है कि यहां चुनाव लड़ने की शुरुआत ही झूठ के साथ होती है। गड़बड़ी की शुरुआत भी टिकट बांटने के स्तर से ही हो जाती है। बड़ी पार्टियों में टिकट देते समय किसी कार्यकर्ता की निष्ठा और विचारधारा की प्रतिबद्धता को प्रमुखता देने के बजाय किसी पैसे वाले को ही प्राथमिकता दे दी जाती है। पार्टियों को पता है कि चुनाव लड़ने में बहुत पैसा खर्च होता है। इसलिए वे टिकट ऐसे लोगों को ही देती हैं जो काफी पैसा खर्च कर सकें और किसी भी कीमत पर चुनाव जीत सकें। जाहिर है, ऐसा उम्मीदवार बढ़-चढ़कर पैसे खर्च करता है। पर जब वह चुनाव आयोग के सामने अपने चुनावी खर्चे का जो लेखा-जोखा देता है, वह वास्तविक खर्च से काफी कम होता है। आयोग के पास उसके सत्यापन की कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए नियमत: स्वीकृत राशि से अधिक खर्च करने वाले उम्मीदवार आसानी से बच निकलते हैं। समस्या यहीं खत्म नहीं होती। अब अगर आयोग या कोई व्यक्ति किसी उम्मीदवार के चुनावी खर्च पर सवाल खड़ा करता है तो इसकी जांच की कोई सही व्यवस्था नहीं होने की वजह से पहले तो यह साबित नहीं हो पता है कि फलां उम्मीदवार ने तय सीमा का उल्लंघन किया है। इसके अलावा मामले की सुनवाई व्यवस्था इतनी धीमी है कि फैसला आते-आते संबंधित उम्मीदवार का कार्यकाल ही समाप्त हो जाता है। इसलिए जब तक कोई ऐसी व्यवस्था बन जाए जिससे चुनावी खर्चे का सही- सही पता लग सके और यह सुनिश्चित हो सके कि एक निश्चित रकम से ज्यादा पैसा चुनाव में खर्च नहीं होगा, सरकारी खर्चे पर चुनाव लड़ने की व्यवस्था का कोई मतलब नहीं बनता। इसलिए कि ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा दिया जाने वाला पैसा, उम्मीदवारों द्वारा पहले से किए जाने वाले खर्च में जुड़ जाएगा और चुनाव व्यवस्था और भी खर्चीली साबित होगी। कुछ ऐसी ही समस्या अपराधियों को भी चुनाव व्यवस्था से बाहर रखने में होती है। यह पूरे क्षेत्र की जनता को पता होता है कि फलां उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि वाला है लेकिन उसे चुनाव लड़ने से तब तक रोका नहीं जा सकता जब तक उसे गुनहगार ठहराया जाए। अपने यहां की न्यायिक व्यवस्था इतनी सुस्त है कि कई मामलों में फैसले आने में कई दशक भी गुजर जाते हैं। ऐसी स्थिति में अपराधी मजे में चुनाव लड़ते रहते हैं। अगर सरकार वाकई चुनाव प्रक्रिया को अपराधियों से मुक्त करना चाहती है तो उसे कोई ऐसी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए जिसमें सख्त और त्वरित न्याय हो। इसके अलावा चुनाव सुधार की दिशा में एक अहम बात यह है कि सभी पार्टियों की ऑडिटिंग हो। एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसके जरिए सभी राजनीतिक दलों को होने वाली आमदनी का पता लगाया जाए। यह पता लगाया जाए कि उन्हें किस स्रेत से कितनी आमदनी हो रही है। इसके अलावा यह भी पता लगाया जाए कि वे पैसे कहां और कैसे खर्च कर रहे हैं। अभी हालत यह है कि कोई भी दल आमदनी और खर्च की सही जानकारी देने की जहमत नहीं उठाना चाहता। अगर राजनीतिक दलों की आमदनी और खर्चे की ऑडिटिंग सही तरीके से होने लगे तो चुनावों में होने वाली आर्थिक धांधली पर भी लगाम लग सकेगी। निष्पक्ष और दोषमुक्त चुनाव के लिए यह बेहद जरूरी है कि चुनाव सुधार के लिए जो भी नियम बनाए जाएं, वे सही तरीके से लागू हों।