Thursday, March 29, 2012

अमीर देश के गरीब

अपने देश में अब सीधे विकास को लेकर बात नहीं हो रही बल्कि इसके समावेशी आयाम पर सर्वाधिक बल दिया जा रहा है। आर्थिक सोच में आया यह फर्क अकारण नहीं है। दरअसल, पिछले दो दशकों के उदारवादी दौर में हम आगे तो बहुत बढ़े हैं पर देश-समाज के हर हिस्से की इसमें बराबर भागीदारी नहीं रही। आलम यह है कि भारत की गिनती जरूर आज दुनिया में चीन के बाद सबसे ज्यादा सुरक्षित और संभावनाओं से भरी इकोनमी के रूप में होती है पर देश के भीतर विकास को लेकर वर्गीय अंतर खतरनाक तरीके से बढ़ गया है। वित्त राज्यमंत्री नमोनारायण मीणा ने संसद में ग्लोबल वेल्थ इंटेलीजेंस फर्म के हालिया सव्रे की चर्चा की है। इसमें कहा गया है कि देश की चोटी के सर्वाधिक 8200 अमीर लोगों के पास करीब 945 अरब अमेरिकी डॉलर (47250 अरब रुपये) की दौलत है, जो देश की अर्थव्यवस्था का तकरीबन 70 फीसद हिस्सा है। साफ है कि धन और साधन के असमान वितरण की चुनौती एक खतरनाक स्थिति की ओर इशारा कर रही है। कुछ महीने पहले आई हंगामा रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ था कि देश में 14 करोड़ नौनिहालों का बचपन महज इस कारण असुरक्षित और बीमार है क्योंकि वे कुपोषित हैं। अभी कुछ ही दिन हुए हैं, जब योजना आयोग की तरफ से आए निर्धनता तय करने के अतार्किक पैमाने पर संसद से लेकर सड़क तक शोर मचा। आयोग ने अपनी रपट में शहरी क्षेत्रों में रोजाना 28.65 और देहाती इलाकों में 22.42 रुपए खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर माना है। कहने की जरूरत नहीं कि यह आम जन के प्रति एक तंग नजरिया है। भूले नहीं हैं लोग आज भी अजरुन सेनगुप्ता कमेटी की उस चर्चित रिपोर्ट को जिसमें दावा किया गया था कि देश की 77 फीसद आबादी 20 रुपए रोजाना से कम पर जीवन गुजारने को विवश है। आज जब वित्तमंत्री कड़े फैसले लेने की दरकार पर जोर देते हैं तो इसमें यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कड़े फैसले का मतलब अब भी यदि कर ढांचा और आयात-निर्यात नीति आदि में बदलाव मात्र हैं तो यह विकास की असमानता को तो दूर करने वाली अर्थनीति साबित होने से रही। समावेशी अर्थ विकास का दर्शन अगर आज भी सरकारी जुमलेबाजी का हिस्सा भर है तो आगे देश में गरीबी-अमीरी की खाई और बढ़ेगी ही। पिछले कुछ महीनों में भारत सहित दुनिया भर में आर्थिक मोच्रे पर चिंताएं सघन हुई हैं। चार साल पहले की वैिक मंदी एक बार फिर से सिर उठा रही है और इस बार इसकी चपेट में डॉलर से लेकर यूरोजोन तक की इकोनमी के आने का अंदेशा है। ऐसे में भारत को अपने आर्थिक विकास को वर्टिकल से हॉरिजेंटल ग्रोथ की तरफ फोकस करना होगा। क्योंकि तभी आमजन के साथ देश के आर्थिक ढांचे की बुनियाद भी सशक्त और टिकाऊ बनी रहेगी।

दूर होता दहाई विकास का सपना


एक ऐसे समय में जबकि वैश्विक आर्थिक मंदी के बीच सरकार की साख दिनोंदिन गिर रही है, बढ़ती कीमतों और राजस्व घाटे के बीच ऐसा बजट प्रस्तुत करना जो सबको खुश कर सके और विकास की दर भी बढ़ाए, तलवार की धार पर चलने के समान है। सात वर्षो से लगातार बजट पेश करते आ रहे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने इस वर्ष के बजट में जो प्रावधान किए हैं वे उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते। न तो महंगाई पर लगाम कसने के लिए ठोस कदम सुझाए गए और न ही आर्थिक विकास को दिशा दी गई है। प्रत्यक्ष कर में मात्र दो हजार रुपये की छूट आंसू पोंछने का प्रयास भर है, हालांकि अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि इस छोटे से लाभ को भी निरस्त कर देती है। इसी तरह सेवा कर और उत्पाद शुल्क में वृद्धि आम आदमी की आर्थिक तंगी और बढ़ाने वाली है। 7.6 के विकास दर का लक्ष्य और राजस्व घाटे को 5.1 पर सीमित करने का वायदा भी वित्तमंत्री पूरा कर सकेंगे, इसमें संदेह है। पिछले वर्ष विकास की दर अपेक्षा से कम रही और राजस्व घाटा अनुमान से अधिक। महंगाई की दर में थोड़ी सी कमी आई है, लेकिन आने वाले दिनों में कीमतों में फिर उछाल आने की संभावना है, क्योंकि पेट्रोल की कीमतें बढ़ने वाली हैं और उत्पाद शुल्क की बढ़ोतरी आग में घी का काम करेगी। उत्पाद करों में वृद्धि से कच्चे माल की कीमतों और किराए भाड़े में वृद्धि होगी जिससे वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी और मांग घटेगी। छोटे उद्योगों के लिए इंडिया अपार्चुनिटी वेंचर फंड की स्थापना स्वागतयोग्य है, लेकिन इन उद्योगों को चीन से आयातित सस्ती चीजों से जो खतरा है। इस संदर्भ में ध्यान देना जरूरी नहीं समझा गया। बड़े पैमाने पर रोजगार देने वाले छोटे उद्योग बंद हो रहे हैं। बिजली की कमी, कच्चे माल की बढ़ती कीमतें, आधुनिक तकनीक के लिए धन का अभाव एक बड़ी बाधा है। हथकरघा उद्योग और बुनकरों पर ध्यान दिया गया है, लेकिन अन्य लघु उद्योगों में कार्यरत असंगठित कामगारों की भलाई के लिए कोई योजना सरकार की ओर से आखिर क्यों नहीं आती? कृषि में हरित क्रांति के लिए अनुसंधान पर खर्च बढ़ाने का प्रावधान अच्छा कदम है। पूर्वोत्तर राज्यों में धान की रिकॉर्ड पैदावार से साबित होता है कि उन्नत बीजों, कृषि संसाधनों और शिक्षा पर खर्च खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता के लिए जरूरी है। मनरेगा के लिए बजट राशि इस बार घटाई गई है जिससे सरकार की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं। जहां तक खेती की बात है तो विकसित राज्यों की उपेक्षा की गई है और भूमि अधिग्रहण नीति पर सरकार मौन है। ग्रामीण सड़कों के लिए निर्धारित राशि आवश्यकता से काफी कम है। इसी तरह जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए भी कारगर उपाय नहीं सुझाए गए हैं। आज भी लाखों गांवों में बिजली, सड़क, पीने का स्वच्छ पानी और प्राथमिक पाठशालाओं का अभाव दर्शाता है कि सरकार की कथनी और करनी में कितना अंतर है। खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों की मौजूदगी बढ़ाने की सरकार की मंशा चिंताजनक है। इसका रोजगार पर बुरा असर पड़ेगा। बड़े-बड़े शहरों में कुछ मॉल खुल जाएं तो उनसे देश का खुदरा व्यापार अधिक प्रभावित नहीं होता, किंतु जब अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को पूरे देश में पैर पसारने की सुविधा मिल जाएगी तो छोटे खुदरा व्यापारी कहीं के नहीं रहेंगे। मल्टी ब्रांड में विदेशी कंपनियों की भागीदारी में जल्दबाजी देशहित में नहीं होगी। यूरोप एवं अमेरिका की आबादी बहुत कम है, वहां मॉल सभ्यता लाभप्रद है किंतु भारत जैसे सघन और बड़ी आबादी वाले देश में रोजगार के अवसर बढ़ाने वाले कदम उठाने चाहिए न कि सीमित करने के। काले धन पर श्वेतपत्र लाने का वायदा सरकार ने किया है। कुछ लोगों ने विदेशों में इतनी संपत्ति जमा की है जो हमारी सकल घरेलू उत्पाद की लगभग एक तिहाई है, लेकिन ऐसे लोगों के नामों की घोषणा पर सरकार चुप है। जनआंदोलन के दबाव में जो लोकपाल बिल संसद में आया उस बारे में भी कोई घोषणा नहीं की गई। बजट में एक महत्वपूर्ण घोषणा विदेशी कंपनियों द्वारा देश के अंदर खरीदी गई संपत्ति के संबंध में है। विदेशी कंपनियां अब भारत में खरीदी गई संपत्ति पर टैक्स नहीं बचा पाएंगी। इसी तरह सोने पर आयात कर बढ़ने से सोने के बाट और सिक्के महंगे हो जाएंगे जिसका असर सोने के आभूषणों के निर्यात पर पड़ेगा और इससे कालाबाजारी भी बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था की धुरी है बचत। हमारी बचत की प्रवृत्ति ने ही हमें विश्वव्यापी आर्थिक मंदी में बचाए रखा, लेकिन अब यह आधार भी खिसक रहा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षो से बचत दर घट रही है। इस वर्ष के बजट में नए निवेशकों के लिए टैक्स में कुछ छूट के प्रावधान किए गए हैं। राजीव गांधी इक्विटी बचत योजना में 50,000 रुपये तक के निवेश पर उन लोगों को कर छूट मिलेगी जिनकी आमदनी 10 लाख रुपये से कम है, लेकिन शर्त रख दी गई है कि कम से कम तीन साल के लिए इसमें निवेश करना होगा। इसके अलावा बचत खातों पर 10 हजार रुपये तक का ब्याज भी कर मुक्त होगा जिसका लाभ 5 लाख रुपये से कम आमदनी वालों को ही होगा। कुछ डूबते हुए उद्योगों को सरकार ने सहारा दिया है। एयरलाइंस क्षेत्र में विदेशी कंपनियां 49 प्रतिशत तक भागीदारी कर सकती हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की पूंजी बढ़ाने के लिए बड़े अनुदान की घोषणा हुई है। कुल मिलाकर यह एक मिश्रित प्रभाव वाला बजट है। दहाई विकास का सपना अभी दूर की कौड़ी है और बजट आने के बाद महंगाई और बढ़ने के पूरे आसार हैं। बजट से आम आदमी और व्यापारियों दोनों को निराशा हुई है। (लेखक दिल्ली विवि में व्यावसायिक अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं डीन हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

दूर होता दहाई विकास का सपना


एक ऐसे समय में जबकि वैश्विक आर्थिक मंदी के बीच सरकार की साख दिनोंदिन गिर रही है, बढ़ती कीमतों और राजस्व घाटे के बीच ऐसा बजट प्रस्तुत करना जो सबको खुश कर सके और विकास की दर भी बढ़ाए, तलवार की धार पर चलने के समान है। सात वर्षो से लगातार बजट पेश करते आ रहे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने इस वर्ष के बजट में जो प्रावधान किए हैं वे उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते। न तो महंगाई पर लगाम कसने के लिए ठोस कदम सुझाए गए और न ही आर्थिक विकास को दिशा दी गई है। प्रत्यक्ष कर में मात्र दो हजार रुपये की छूट आंसू पोंछने का प्रयास भर है, हालांकि अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि इस छोटे से लाभ को भी निरस्त कर देती है। इसी तरह सेवा कर और उत्पाद शुल्क में वृद्धि आम आदमी की आर्थिक तंगी और बढ़ाने वाली है। 7.6 के विकास दर का लक्ष्य और राजस्व घाटे को 5.1 पर सीमित करने का वायदा भी वित्तमंत्री पूरा कर सकेंगे, इसमें संदेह है। पिछले वर्ष विकास की दर अपेक्षा से कम रही और राजस्व घाटा अनुमान से अधिक। महंगाई की दर में थोड़ी सी कमी आई है, लेकिन आने वाले दिनों में कीमतों में फिर उछाल आने की संभावना है, क्योंकि पेट्रोल की कीमतें बढ़ने वाली हैं और उत्पाद शुल्क की बढ़ोतरी आग में घी का काम करेगी। उत्पाद करों में वृद्धि से कच्चे माल की कीमतों और किराए भाड़े में वृद्धि होगी जिससे वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी और मांग घटेगी। छोटे उद्योगों के लिए इंडिया अपार्चुनिटी वेंचर फंड की स्थापना स्वागतयोग्य है, लेकिन इन उद्योगों को चीन से आयातित सस्ती चीजों से जो खतरा है। इस संदर्भ में ध्यान देना जरूरी नहीं समझा गया। बड़े पैमाने पर रोजगार देने वाले छोटे उद्योग बंद हो रहे हैं। बिजली की कमी, कच्चे माल की बढ़ती कीमतें, आधुनिक तकनीक के लिए धन का अभाव एक बड़ी बाधा है। हथकरघा उद्योग और बुनकरों पर ध्यान दिया गया है, लेकिन अन्य लघु उद्योगों में कार्यरत असंगठित कामगारों की भलाई के लिए कोई योजना सरकार की ओर से आखिर क्यों नहीं आती? कृषि में हरित क्रांति के लिए अनुसंधान पर खर्च बढ़ाने का प्रावधान अच्छा कदम है। पूर्वोत्तर राज्यों में धान की रिकॉर्ड पैदावार से साबित होता है कि उन्नत बीजों, कृषि संसाधनों और शिक्षा पर खर्च खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता के लिए जरूरी है। मनरेगा के लिए बजट राशि इस बार घटाई गई है जिससे सरकार की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं। जहां तक खेती की बात है तो विकसित राज्यों की उपेक्षा की गई है और भूमि अधिग्रहण नीति पर सरकार मौन है। ग्रामीण सड़कों के लिए निर्धारित राशि आवश्यकता से काफी कम है। इसी तरह जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए भी कारगर उपाय नहीं सुझाए गए हैं। आज भी लाखों गांवों में बिजली, सड़क, पीने का स्वच्छ पानी और प्राथमिक पाठशालाओं का अभाव दर्शाता है कि सरकार की कथनी और करनी में कितना अंतर है। खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों की मौजूदगी बढ़ाने की सरकार की मंशा चिंताजनक है। इसका रोजगार पर बुरा असर पड़ेगा। बड़े-बड़े शहरों में कुछ मॉल खुल जाएं तो उनसे देश का खुदरा व्यापार अधिक प्रभावित नहीं होता, किंतु जब अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को पूरे देश में पैर पसारने की सुविधा मिल जाएगी तो छोटे खुदरा व्यापारी कहीं के नहीं रहेंगे। मल्टी ब्रांड में विदेशी कंपनियों की भागीदारी में जल्दबाजी देशहित में नहीं होगी। यूरोप एवं अमेरिका की आबादी बहुत कम है, वहां मॉल सभ्यता लाभप्रद है किंतु भारत जैसे सघन और बड़ी आबादी वाले देश में रोजगार के अवसर बढ़ाने वाले कदम उठाने चाहिए न कि सीमित करने के। काले धन पर श्वेतपत्र लाने का वायदा सरकार ने किया है। कुछ लोगों ने विदेशों में इतनी संपत्ति जमा की है जो हमारी सकल घरेलू उत्पाद की लगभग एक तिहाई है, लेकिन ऐसे लोगों के नामों की घोषणा पर सरकार चुप है। जनआंदोलन के दबाव में जो लोकपाल बिल संसद में आया उस बारे में भी कोई घोषणा नहीं की गई। बजट में एक महत्वपूर्ण घोषणा विदेशी कंपनियों द्वारा देश के अंदर खरीदी गई संपत्ति के संबंध में है। विदेशी कंपनियां अब भारत में खरीदी गई संपत्ति पर टैक्स नहीं बचा पाएंगी। इसी तरह सोने पर आयात कर बढ़ने से सोने के बाट और सिक्के महंगे हो जाएंगे जिसका असर सोने के आभूषणों के निर्यात पर पड़ेगा और इससे कालाबाजारी भी बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था की धुरी है बचत। हमारी बचत की प्रवृत्ति ने ही हमें विश्वव्यापी आर्थिक मंदी में बचाए रखा, लेकिन अब यह आधार भी खिसक रहा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षो से बचत दर घट रही है। इस वर्ष के बजट में नए निवेशकों के लिए टैक्स में कुछ छूट के प्रावधान किए गए हैं। राजीव गांधी इक्विटी बचत योजना में 50,000 रुपये तक के निवेश पर उन लोगों को कर छूट मिलेगी जिनकी आमदनी 10 लाख रुपये से कम है, लेकिन शर्त रख दी गई है कि कम से कम तीन साल के लिए इसमें निवेश करना होगा। इसके अलावा बचत खातों पर 10 हजार रुपये तक का ब्याज भी कर मुक्त होगा जिसका लाभ 5 लाख रुपये से कम आमदनी वालों को ही होगा। कुछ डूबते हुए उद्योगों को सरकार ने सहारा दिया है। एयरलाइंस क्षेत्र में विदेशी कंपनियां 49 प्रतिशत तक भागीदारी कर सकती हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की पूंजी बढ़ाने के लिए बड़े अनुदान की घोषणा हुई है। कुल मिलाकर यह एक मिश्रित प्रभाव वाला बजट है। दहाई विकास का सपना अभी दूर की कौड़ी है और बजट आने के बाद महंगाई और बढ़ने के पूरे आसार हैं। बजट से आम आदमी और व्यापारियों दोनों को निराशा हुई है। (लेखक दिल्ली विवि में व्यावसायिक अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं डीन हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

Tuesday, March 20, 2012

मुकुल की ताजपोशी आज कम होगा बढ़ा किराया


ममता बनर्जी की नाराजगी का शिकार हुए पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी की जगह मुकुल रॉय की रेल मंत्रालय में ताजपोशी होगी। शुरुआती असहमति के बावजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ममता ने इसके लिए तैयार कर लिया है। मंगलवार सुबह रॉय को कैबिनेट मंत्री पद की शपथ दिलाई जाएगी। इसके साथ ही त्रिवेदी के रेल बजट के किराया वृद्धि के तीखे प्रस्तावों की रुखसती तय है। रॉय संसद में रेल बजट पर चर्चा का जवाब देने के दौरान ही साधारण क्लास की किराया वृद्धि को वापस लेने और स्लीपर क्लास के किरायों में आंशिक कमी का ऐलान कर सकते हैं। वातानुकूलित श्रेणियों के किरायों में भी राहत संभव है। ममता के निर्देश पर रविवार शाम प्रधानमंत्री को अपना त्यागपत्र भेज चुके त्रिवेदी का इस्तीफा सोमवार को मंजूर हो गया। शाम को प्रधानमंत्री की ओर से रॉय को कैबिनेट मंत्री बनाने का प्रस्ताव राष्ट्रपति भवन भेज दिया गया। शपथ ग्रहण के बाद रॉय ही सदन में रेल बजट पर चर्चा का जवाब देंगे और इसकी पूरी संभावना है कि वह त्रिवेदी के किराया वृद्धि के प्रस्तावों पर कैंची चलाएंगे। त्रिवेदी ने अपने बजट में साधारण दर्जो में 2 पैसे, स्लीपर क्लास में 5, वातानुकूलित श्रेणियों में क्रमश: 10 (थर्ड एसी), 15 (सेकेंड एसी) और 30 पैसे (फ‌र्स्ट एसी) प्रति किमी वृद्धि का प्रस्ताव किया था। सूत्रों के अनुसार ममता की मंशा है कि साधारण दर्जे में वृद्धि पूरी तरह रद की जाए, स्लीपर क्लास की वृद्धि घटाकर 2 या 3 पैसे प्रति किमी पर लाई जाए। उनकी नजर में एसी क्लास की किराया वृद्धि भी ज्यादा है, लिहाजा थर्ड एसी में बढ़ोतरी को 5 पैसे, सेकेंड एसी में 10 और फ‌र्स्ट एसी में 15 पैसे करना उचित होगा। अभी रेलवे को यात्री किराये से सालाना करीब 26 हजार करोड़ की आय होती है। इसमें से 20 हजार करोड़ अकेले स्लीपर क्लास से आते हैं। त्रिवेदी के किराया वृद्धि के प्रस्तावों से 2012-13 में रेलवे को 8000 करोड़ की अतिरिक्त आमदनी होने वाली थी। यदि कटौतियां हुई तो फायदा घटकर 3000 करोड़ रह जाएगा। वातानुकूलित श्रेणियों में प्रस्तावित किराये में कटौती नहीं होती है तो रेलवे को 4000 करोड़ की अतिरिक्त आय होगी। इसकी भरपाई रेलवे माल ढुलाई से करने की कोशिश करेगी, जहां बजट से पहले ही 20 फीसदी तक की वृद्धि की जा चुकी है। इससे पहले, ममता ने लोस में पार्टी नेता सुदीप बंदोपाध्याय और विश्वस्त मुकुल रॉय के साथ संसद भवन परिसर में प्रधानमंत्री से मुलाकात की और उन्हें राजी कर लिया। मुकुल के नाम पर प्रधानमंत्री को कुछ आशंकाएं थीं। यही कारण था कि पिछली बार ममता ने मुकुल को रेल मंत्रालय में स्थापित करने की कोशिश की थी, लेकिन बाद में त्रिवेदी आसीन हो गए थे। इस बार जबकि ममता मुकुल के नाम पर अडिग थीं तो प्रधानमंत्री चाहते थे कि कम से कम रेल बजट पारित होने तक इंतजार करें, लेकिन ममता ने दो टूक कह दिया कि वह इससे सहमत नहीं हैं। बताते हैं कि उन्होंने राजग काल में रेल बजट के दौरान मंत्रालय में हुए फेरबदल का उदाहरण देते हुए कहा, उस वक्त उन्होंने रेल बजट पेश किया था लेकिन संसद में जवाब नीतीश कुमार ने दिया था। सूत्र बताते हैं कि सरकार ने सुदीप बंदोपाध्याय को प्रोन्नत करने का भी प्रस्ताव दिया था लेकिन ममता की जिद के सामने सरकार को झुकना पड़ा। माना जा रहा है कि भविष्य में जहाजरानी मंत्रालय में खाली हुई जगह पर तृणमूल से किसी महिला सांसद को शामिल कराने की कोशिश होगी। ममता ने संसद के सेंट्रल हाल में पार्टी के सभी सांसदों के साथ भी बैठक की, जिसमें त्रिवेदी भी मौजूद थे। बताया जाता है कि उन्होंने सभी सांसदों को जनता से जुड़े मुद्दों पर सतर्क रहने की ताकीद करने के साथ ही यह संकेत भी दे दिया कि अनुशासन के मुद्दों पर किसी को नही बख्शा जाएगा। ममता ने बाद में पत्रकारों से बातचीत में पीएम के साथ बैठक को संतोषप्रद बताते हुए कहा, एनसीटीसी, रेल यात्री किराया में बढ़ोत्तरी जैसे सभी मुद्दों पर चर्चा हो गई है। किराया पर फैसला प्रधानमंत्री लेंगे, लेकिन उन्होंने इसका भी परोक्ष संकेत दे दिया कि साधारण और स्लीपर क्लास के किराए को ठीक किया जाएगा।

26 रुपये रोजाना पर गुजर कर रही 35 करोड़ आबादी


सरकार ने जहां माना है कि देश की लगभग 30 फीसदी आबादी अभी भी गरीब है। वहीं उसने गरीबी के पैमाने में और कटौती कर दी है। अब शहरों में रोजाना 28.65 और गांवों में 22.42 रुपये से ज्यादा कमाने वाले को गरीब नहीं माना जाएगा। यह सुप्रीमकोर्ट में सरकार की ओर से दाखिल 32 और 26 रुपये के पैमाने से भी कम है। इससे सामाजिक संगठन और भड़क सकते हैं। गरीबों की संख्या पर योजना आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 2009-10 में 29.8 फीसदी जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही थी। दूसरे शब्दों में कहे तो 35.47 करोड़ जनता औसतन 26 रुपये रोजाना पर गुजारा कर रही है। यह स्थिति तब है जब 2009-10 के पिछले पांच वर्षो तक देश की आर्थिक विकास दर आजादी के बाद सबसे तेज रही है। तेंदुलकर समिति के फार्मूले पर तैयार इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2004-05 में देश में गरीबों की संख्या 40.72 करोड़ थी जो 09-10 में 35.46 करोड़ हो गई है। दूसरे शब्दों में तब 37.2 फीसदी आबादी गरीब थी जिनकी संख्या घट कर 29.8 फीसदी हो गई है। ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को ज्यादा सफलता मिली है क्योंकि ग्रामीण गरीबों की संख्या में 8 फीसदी की गिरावट हुई है, जबकि शहरी क्षेत्रों में 4.8 फीसदी गरीब कम हुए हैं। योजना आयोग के आंकड़े कई अहम तथ्य उजागर करते हैं जो आने वाले दिनों सरकार के नीति निर्धारण में काफी जरूरी साबित हो सकते हैं। मसलन अनुसूचित जनजाति (एसटी) की 47.4 फीसदी आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। गांवों में 42.3 फीसदी अनुसूचित जाति (एससी), 31.9 फीसदी अन्य पिछड़ी जाति के लोग गरीब है। शहरी इलाकों में भी लगभग यही स्थिति है। बिहार और छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में दो तिहाई एससी व एसटी गरीबी रेखा के नीचे हैं। योजना आयोग का यह आकलन एक तरह से यूपीए-वन के कार्यकाल की सीधी समीक्षा है। यूपीए-एक ने जून, 2004 में कार्यकाल संभाला था। उसके बाद के पांच वर्षो तक देश की आर्थिक विकास दर क्रमश: 6.9 फीसदी, 9.5 फीसदी, 9.6 फीसदी, 9.3 फीसदी और 6.8 फीसदी रही है। इस दौरान आबादी में 4.26 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा के उपर लाने में सफलता हासिल हुई है। इस तरह से देखा जाए तो अगर अगले चार दशकों तक नौ फीसदी या इससे ज्यादा की आर्थिक विकास दर हासिल की जाती है तब जा कर अगले तीन से चार दशकों के बीच गरीबी का खात्मा हो सकेगा।

Wednesday, March 14, 2012

कितने सुरक्षित हैं हमारे बांध


केरल और तमिलनाडु में तीखा विवाद उत्पन्न करने वाले मुल्लापेरियार बांध का मुद्दा चाहे अदालती कार्यवाही के दौर में कुछ थम-सा गया है, पर इस बेहद असुरक्षित बांध की छाया में रह रहे संभवत: लाखों लोगों की दहशत में कोई कमी नहीं आई है। 116 वर्ष पहले बना व हाल में आए भूकंपों से क्षतिग्रस्त हुआ यह बांध अब बेहद कमजोर हो चुका है व कई विशेषज्ञ यह राय जाहिर कर चुके हैं कि इस क्षेत्र में संभावित 6.5 रिक्टर के पैमाने के भूकंप को यह कतई सहन नहीं कर सकेगा। यदि यह बांध टूट गया तो इस बांध और पेरियार नदी घाटी में इसके और अगले बांध इडुक्की के बीच रहने वाले 75 हजार लोग गंभीर संकट में आ जाएंगे। यदि आसन्न संकट के वक्त इडुक्की बांध भी क्षतिग्रस्त हुआ तो तीस लाख तक लोगों का जीवन संकटग्रस्त हो सकता है। वास्तव में यह मुद्दा मूलत: दो राज्यों के विवाद का मुद्दा है ही नहीं क्योंकि केरल ने स्पष्ट कहा है कि किसी वैकल्पिक तौर-तरीके से वह तमिलनाडु को उसके निर्धारित हिस्से का पानी उपलब्ध करवाने से पीछे नहीं हटेगा। ऐसे में इस मामले को मूलत: संकटग्रस्त लोगों के जीवन की रक्षा के रूप में ही उठाया जाना चाहिए था और चूंकि जीवन की रक्षा से बड़ा और कोई उद्देश्य नहीं है, इसलिए बहुत पहले ही इस असुरक्षित बांध को हटा कर कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर दी जानी चाहिए थी। पर जिस तरह बड़ी संख्या में लोगों को दहशत में रहने को मजबूर किया जा रहा है, उससे एक बार फिर जाहिर हो गया है कि सरकारी स्तर पर बांध सुरक्षा का मुद्दा कितना उपेक्षित रहा है। कुछ समय पहले अगस्त, 2011 में संसद की स्थाई समिति ने संसद को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में सरकार की इस बात के लिए तीखी आलोचना की थी कि बांध सुरक्षा विधेयक का प्रस्ताव आने के बाद उससे संबंधित बिल को तैयार करने में सरकार ने 25 वर्ष का समय लिया। साथ ही इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इतनी देरी के बाद जो बिल तैयार किया गया है वह बेहद कमजोर व अप्रभावी है। उसमें बांध के विफल होने या सुरक्षा के प्रावधानों की अवहेलना की स्थिति में समुचित दंड की व्यवस्था नहीं की गई है। बिल में प्रतिकूल प्रभावित या क्षतिग्रस्त लोगों के मुआवजे का प्रावधान नहीं है। किसी स्वतंत्र नियमन की व्यवस्था भी बिल में नहीं है। बांध सुरक्षा की अवहेलना विभिन्न परियोजनाओं संबंधी निर्णयों व निर्णय प्रक्रियाओं में भी नजर आती है। टिहरी बांध के संदर्भ में अब शायद कम लोगों को यह याद होगा कि केंद्रीय सरकार द्वारा ही नियुक्त की गई एक विशेषज्ञों की समिति (पर्यावरण मंत्रालय की नदी घाटी परियोजनाओं से संबद्ध समिति) ने कहा था कि इस परियोजना की सुरक्षा संबंधी चिंताएं असहनीय हद तक अधिक हैं और इन्हें ध्यान में रखते हुए इस परियोजना को त्याग देना चाहिए। इतनी स्पष्ट प्रतिकूल संस्तुति के बावजूद भी टिहरी परियोजना के कार्य को तेजी से आगे बढ़ाया गया। आज परियोजना के पूर्ण होने के बाद यह स्पष्ट है कि इसके बड़े खतरे हमारे सामने आते जा रहे हैं जबकि इससे प्राप्त हो रहा वास्तविक लाभ इसके पूर्व प्रचारित लाभ से कहीं कम है। अब ऐसी ही सुरक्षा संबंधी अवहेलना कोसी बराह क्षेत्र बांध परियोजना के संदर्भ में भी नजर आ रही है। यह सच है कि कोसी नदी की बाढ़ का मामला काफी पेचीदा है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इसका समाधान ऐसी परियोजना में खोजा जाए जिसकी सुरक्षा पर कई सवालिया निशान पहले ही लग चुके हैं। कुछ समय पहले भारत-नेपाल संयुक्त नदी आयोग की बैठक के बाद कोसी नदी पर बराह क्षेत्र में हाई डैम बनाने के लिए विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करने की चर्चा ने जोर पकड़ा है। कहा जा रहा है कि प्रोजेक्ट रिपोर्ट अब शीघ्र ही तैयार होगी। इस बारे में मूल प्रस्ताव तो लगभग 65 वर्ष पुराना है जिसमें चतरा घाटी में बराह क्षेत्र (नेपाल) के पास 229 मीटर ऊंचा कंक्रीट बांध बनाने व उसके साथ 1200 मेगावाट क्षमता का पनिबजली घर बनाने की बात कही गई थी। ध्यान देने की बात है कि उस समय भी यह योजना टलने की एक मुख्य वजह यह थी कि बराह क्षेत्र तीव्र भूकंप आशंका वाले इलाके में आता है और डैम के क्षेत्र के नजदीक वर्ष 1934 के समान 8.3 की तीव्रता वाले भूकंप के आने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। इस परियोजना से जुड़े रहे एनबी गाडगिल ने 11 सितम्बर, 1954 को लोकसभा को बताया था, ‘एक समय मुझे भी कोसी प्रोजेक्ट का काम-धाम देखना पड़ा था। वहां जब जमीन के अंदर छेद करने के प्रयोग किए गए तब पता चला कि वह पूरा का पूरा इलाका ऐसा है जिस पर भूकंप के झटके लगते हैं, तब हम लोगों को सोचना पड़ा कि वहां जलाशय बने या कोई दूसरी व्यवस्था की जाए। या फिर जैसा कि पिछले हफ्ते अल्जीयर्स में हुआ, वैसा दुबारा भी होगा। वहां भूकंप की वजह से या तो बांधों में दरार पड़ गई या वह ढह गए और कई बांधों का तो नामोनिशान ही मिट गया।
इसी समय के आसपास 22 सितम्बर, 1954 को बिहार विधान सभा में वित्त मंत्री अनुग्रह नारायण सिंह ने कहा, ‘अभी 2-3 वर्षो से इसकी जांच ही रही थी कि कोसी नदी पर एक बांध बांधा जाए जो कि 700 फीट ऊंचा हो, लेकिन बाद में इस बात पर विचार किया गया कि अगर वह 700 फीट का बांध फट जाए तो जो पानी उसमें जमा है उससे सारा बिहार और बंगाल बह जाएगा और सारा इलाका तबाह और बरबाद हो जाएगा।
कोसी नदी में गाद की मात्रा बहुत अधिक होने के कारण प्रस्तावित जलाशय में वह बहुत तेजी से एकत्र होगी और इस कारण बांध की आयु और उसकी जल-संग्रहण क्षमता पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। यदि बांध से बड़े पैमाने पर अचानक बहुत मात्रा में पानी छोड़ना पड़ा तो इससे नीचे के तटबंधों के बीच फंसे लोग पूरी तरह उजड़ सकते हैं। इतना ही नहीं, तेज वेग से आने वाले इस जल से तटबंध टूट भी सकते हैं और इस तरह एक बड़ा क्षेत्र विनाशकारी बाढ़ की चपेट में आ सकता है। अभी इस ओर अपेक्षाकृत बहुत कम ध्यान गया है कि हमारे देश के अनेक बांध पहले भी टूट चुके हैं व विफल हो चुके हैं। जैसे कि राजस्थान में जुलाई 2007 में जसवंत सागर बांध ऐसे समय टूटा जबकि बड़े बांध सुरक्षा परियोजना के अंतर्गत इसका सुरक्षा आकलन चल रहा था। राजस्थान में गरारदा बांध तो पहली बार ही भरने पर ही टूट गया जिससे दर्जन भर गांवों में पानी भर गया। चंबल नदी की एक सहायक नदी गरारदा पर बने इस बांध के ढहने की जांच की गई तो भ्रष्टाचार और लापरवाही के कारण हुआ घटिया निर्माण इसकी प्रमुख वजह के रूप में सामने आया। आंध्रप्रदेश में हाल के वर्षो में कई बांध टूटे हैं। इनमें पूर्वी गोदावरी में सुब्बारया सागर, खम्माम में पालमवगू बांध व वारंगल जिले में गुंडलावगु बांध शामिल हैं। पिछले 65 वर्षो में देश में लगभग 50 बांध टूट चुके हैं जिसमें गुजरात के मच्छू डैम जैसे उदाहरण भी हैं जिन्होंने बहुत भीषण तबाही मचाई। इसके अतिरिक्त लगभग प्रत्येक वर्ष ही बड़े बांधों से अचानक पानी छोड़ने के कारण जो अधिक पल्रयकारी बाढ़ आती है उसकी विनाशलीला अलग है। कुछ बांधों के बनने के बाद आसपास के क्षेत्र की भूकंपीयता बढ़ गई है, यह भी एक गंभीर समस्या है। चीन के थ्री गार्जिस बांध से तो यह चौंकाने वाला समाचार मिला है कि इसके जलाशय में पानी भरने के बाद यहां की भूकंपीयता 30 गुना बढ़ गई है व लगभग 3 हजार भूकंप दर्ज हुए हैं। इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि बांधों की सुरक्षा को तवज्जो दी जाए और इसके लिए बांध सुरक्षा कानून में जरूरी सुधार किए जाएं। बांध सुरक्षा के सभी पक्षों में पारदर्शिता लानी चाहिए और इसमें सरकारी तंत्र से अलग स्वतंत्र विशेषज्ञों और प्रभावित लोगों के विचारों की सुनवाई की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। खतरनाक नई बांध परियोजनाओं में सुरक्षा पक्ष को समुचित महत्व दिया जाए व यह निर्णय प्रक्रिया निहित स्वाथरे के असर से मुक्त हो, यह भी बहुत जरूरी है।