Wednesday, February 29, 2012

गांवों के गरीबों को मुफ्त दवा देगी सरकार


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वास्थ्य मंत्रालय से ग्रामीण क्षेत्र के सभी स्वास्थ्य केंद्रों पर मरीजों को मुफ्त दवा देने की नई योजना पर काम करने को कहा है। लोगों को सस्ता इलाज देने के लिए केंद्र सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र के खर्च को अगले पांच वर्षो में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का ढाई प्रतिशत करने के साथ ही केंद्रीय स्तर पर दवा खरीद एजेंसी गठित करने जा रही है। 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान स्वास्थ्य क्षेत्र की प्राथमिकताएं तय करने के लिए बुधवार को प्रधानमंत्री ने अपने कार्यालय में योजना आयोग और स्वास्थ्य मंत्रालय के अफसरों संग बैठक की। इस दौरान स्वास्थ्य मंत्रालय ने सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में सभी को मुफ्त दवा उपलब्ध करवाने की योजना का प्रस्ताव किया। पीएम ने योजना पर तेजी से अमल करने को कहा है। इस सिलसिले में केंद्रीय दवा खरीद एजेंसी के गठन को कैबिनेट पहले ही मंजूरी दे चुका है। साथ ही उन्होंने मंत्रालय को इलाज के मानक तय करने के लक्ष्य को भी जल्दी पूरा करने को कहा है। बैठक में तय किया गया कि 12वीं पंचवर्षीय योजना अवधि के दौरान इस क्षेत्र में होने वाले खर्च को मौजूदा 1.4 फीसदी से बढ़ा कर 2.5 फीसदी तक किए जाने की जरूरत है। प्रधानमंत्री ने इस लिहाज से योजना आयोग को केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र का हिस्सा बढ़ाने को कहा है। साथ ही कहा है कि चूंकि स्वास्थ्य मूल रूप से राज्य का विषय है, इसलिए राज्यों को भी इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाएगा। बैठक के दौरान पीएम ने नकली दवा पर अंकुश के लिए औषधि और सौंदर्य प्रसाधन (संशोधन) बिल पर जल्दी विचार कर संसद में पेश करने की जरूरत बताई। स्वास्थ्य मंत्रालय से भी राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जुड़ी योजनाओं का विलय करने के लिए कार्ययोजना तैयार करने को कहा गया है। सरकार का इरादा इस पूरी प्रक्रिया 20131-4 तक पूरी करने का है।

दंगों के दस साल बाद


हर दंगा अपने पीछे गहरे जख्म छोड़ जाता है। यह समाज को विभाजित कर देता है और जन्म के आधार पर लोगों का ध्रुवीकरण कर देता है। प्रत्येक नागरिक समाज को इस प्रकार के सामाजिक तनाव से खुद को मुक्त करना होगा। दुर्भाग्य से गुजरात में लंबे समय से दंगों का इतिहास रहा है। गुजरात में आखिरी बड़ा दंगा 2002 में हुआ था। ऐसे में गुजरात दंगों का पुनरावलोकन करने के साथ-साथ यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि दंगों के दस साल बाद गुजरात आज कहां खड़ा है? इस दशक में गुजरात दंगों से मुक्त रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि 2002 की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं फिर कभी न दोहराई जाएं। आज गुजरात का एजेंडा सामाजिक विभाजन का नहीं है। आज इसका लक्ष्य विकास, नागरिकों के जीवनस्तर में सुधार और विश्व के सफलतम समाजों से होड़ लेना है। गुजराती 2002 की स्मृतियों से उबरना चाहते हैं। इन दंगों की याद वे लोग ताजा कर रहे हैं जो अतीत की दुखद स्मृतियों को प्रासंगिक बनाए रखना चाहते हैं। 27 फरवरी, 2002 को साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे नंबर एस-6 में लगाई गई आग एक बर्बर हरकत थी। इस घटना को देश में सांप्रदायिक माहौल खराब करने की नीयत से कुछ शैतानी तत्वों ने अंजाम दिया था। इससे पूरा समाज चकित रह गया। बहुत से लोग प्रतिशोध की अग्नि में जलने लगे। हिंसा इतनी व्यापक हो गई कि राज्य के सुरक्षा बंदोबस्त नाकाफी सिद्ध हुए। दंगों से निपटने के लिए सेना बुलाई गई। इस हिंसा में बहुत से निर्दोष मारे गए। दर्जनों लोग पुलिस फायरिंग में मारे गए। इसकी तुलना 1984 में सिख विरोधी दंगों से करें तो दंगाइयों से निपटने में पुलिस की निष्कि्रयता सामने आती है। गुजरात दंगों में हजारों आरोप-पत्र दाखिल हुए, बहुत से लोगों को दोषी ठहराया गया, कुछ मामले अभी भी लंबित हैं। बहुत से महत्वपूर्ण मामलों की न्यायपालिका निगरानी कर रही है। भारत में अब तक किसी भी दंगे में इतने आरोपपत्र दाखिल नहीं किए गए और इतने लोगों को दोषी नहीं ठहराया गया, जितना गुजरात दंगे में। दूसरी ओर 1984 के सिख विरोधी दंगों में नाममात्र के आरोपपत्र दाखिल किए गए। यहां तक कि सिखों की हत्याओं पर पीयूसीएल की रिपोर्ट को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। इन दंगों में मीडिया ने चुप्पी साधे रखी और न्यायपालिका निष्कि्रय रही। गुजरात के राजनीतिक नेतृत्व, खासतौर पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को नेतृत्व की गंभीर परीक्षा से गुजरना पड़ा। क्या वह गोधरा और गोधरा के पश्चात के हालात के लिए जिम्मेदार हैं? बहुत से लोग मोदी के खिलाफ माहौल बनाए रखना चाहते हैं। मोदी और गुजरात सरकार उनके द्वारा खड़ी की गई बहुत सी बाधाओं को पार कर चुके हैं। तमाम परेशानियों के बावजूद राज्य ने अभूतपूर्व विकास किया। गुजरात की विकास दर दोहरे अंकों में पहुंच गई। राज्य में 24 घंटे बिजली आती है। नर्मदा परियोजना के कारण सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंच गया है। लालफीताशाही पर लगाम लग गई है। भ्रष्टाचार में कमी आई है और विश्वस्तरीय सड़कों का जाल बिछ गया है। इसके कारण घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निवेशक गुजरात की और आकृष्ट हुए हैं। आज विश्व गुजरात को उसकी विकास गाथा और जबरदस्त आर्थिक संभाव्यता के कारण जानता है। इस विकास का लाभ प्रदेश के निचले तबके तक पहुंचा है। राज्य के बढ़ते राजस्व से अनेक सामाजिक कल्याण और गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। गुजरात के हिंदू और मुसलमान, दोनों ही इस विकास के भागीदार हैं। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि गुजरात के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति देश के अन्य भागों के मुसलमानों की अपेक्षा बेहतर है। पिछले दस वर्षो में गुजरात बदल चुका है और यह कुछ एनजीओ और कांग्रेस पार्टी को रास नहीं आ रहा है। गुजरात के बदले रूप से उनकी राजनीति को लाभ नहीं पहुंचता। इसलिए उनके लिए यह जरूरी है कि गुजरात की दंगाग्रस्त राज्य की छवि को जिंदा रखा जाए। राजनीतिक रूप से वे हार रहे हैं। कांग्रेस चुनाव में नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकती इसलिए वह उन्हें सत्ता से बेदखल करने के लिए नए हथकंडे अपना रही है। कांग्रेस की शुरुआती रणनीति थी कि मीडिया के एक वर्ग का इस्तेमाल करते हुए नरेंद्र मोदी के खिलाफ अफवाहें, झूठफरेब और कुप्रचार किया जाए। वर्षो तक एक भयावह कहानी सुनाई जाती रही कि दंगाइयों ने क्या-क्या किया। यह पूरी कहानी गढ़ी हुई थी। दंगों में संलिप्तता के संबंध में गुजरात पुलिस को नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। अदालत में विशेष जांच दल के लिए याचिका दाखिल की गई। गुजरात पुलिस के विशेष जांच दल को भी मोदी के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिला। इसके बाद सीबीआइ के पूर्व अधिकारियों का जांच दल बनाया गया। मीडिया की खबरों से संकेत मिल रहा है कि उसमें भी मोदी के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं है। हर मुठभेड़ फर्जी मुठभेड़ नहीं होती। अन्य राज्यों में यह माना जाता है कि मुठभेड़ जायज है और उसकी जांच राज्य का तंत्र ही करता है। हालांकि गुजरात में मुठभेड़ की जांच करने के कानूनी मापदंड अलग हैं। लश्करे-तैयबा के आतंकियों से संबद्ध एक महिला कार्यकर्ता और उसके कुछ साथी एक पुलिस मुठभेड़ में मारे गए थे। केंद्र सरकार ने इस मुठभेड़ को वास्तविक बताने वाला शपथपत्र वापस ले लिया। लश्करे-तैयबा ने अपनी वेबसाइट में भी उसे अपना कार्यकर्ता बताया है। एक अदालत ने विशेष जांच दल का गठन कर इस मामले की जांच सौंप दी। इस दल में केंद्र सरकार और एनजीओ द्वारा नामित अधिकारियों को शामिल किया गया। ऐसे में इस जांच दल से निष्पक्षता की उम्मीद कैसे रखी जा सकती है। पिछला एक दशक गुजरात सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। गुजरात में सामाजिक तनाव का इतिहास रहा है, जबकि पिछले दस वर्षों में गुजरात में पूरी शांति रही। गुजरात ने अपने अतीत से पीछा छुड़ाकर आर्थिक विकास के रास्ते पर चलने का प्रयास किया है। गुजरात की त्रासदी यह है कि चूंकि मोदी के विरोधी उन्हें राजनीतिक रूप से नहीं हरा सकते इसलिए वे एनजीओ और मीडिया के एक वर्ग के पीछे छुपकर वार कर रहे हैं। यही उम्मीद की जा सकती है कि न्यायपालिका इस पचड़े से अलग रहे। दोषियों को सजा मिलनी ही चाहिए, किंतु मीडिया में दोषसिद्धि और साक्ष्यों के साथ खिलवाड़ का सिलसिला बंद होना चाहिए। सौहा‌र्द्र और विकास ही सबसे अच्छा इलाज है। गुजरात में दो पक्षों के बीच संघर्ष जारी है। एक गुजरात को 2002 के दौर में खींच कर ले जाना चाहता है और दूसरे का विश्वास है कि यह सदी गुजरात के नाम रहेगी। अब गुजरात के सामने इस नकारात्मक शक्ति से पार पाने की चुनौती है। (लेखक राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

Monday, February 27, 2012

केंद्रीय नीति में राज्यों की सहमति जरूरी

हम एक राष्ट्र के रूप में आतंकवाद को समाप्त करने के बारे में गंभीर क्यों नहीं, जबकि सब जानते हैं कि आतंक का साया आज देश के लगभग हर राज्य पर मंडराने लगा है? जब कभी आतंकवाद का सामना करने के लिए कोई कदम उठाया जाता है तो क्यों वह किसी न किसी विवाद का मुद्दा बन जाता है? इस विसंगति के विभिन्न कारणों में एक बड़ा कारण यह भी है कि केंद्र और राज्यों के बीच न तो लक्ष्य में सहमति होती है और न ही कार्यशैली में। मौजूदा विवाद राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केंद्र के गठन पर आरंभ हुआ है। अनेक राज्यों ने आरोप लगाया है कि इस कदम से केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है और देश के संघीय ढांचे को बिगाड़ रही है। सबसे पहले इस बात को जानना जरूरी है कि क्या किसी ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जिसमें आतंकवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर कार्रवाई की जा सके? हम जानते हैं कि हमारे पास कई नियम कायदे हैं, जिनके माध्यम से आज आतंकवाद जैसे अपराधों का सामना किया जाता है। यह भी साफ है कि केंद्र के अतिरिक्त राज्यों के पास भी कई व्यवस्थाएं हैं और इन पर अमल करने के लिए कई संगठन हैं। ये संगठन जांच गिरफ्तारी और दंड- सबके बारे में हैं लेकिन अक्सर तालमेल के अभाव में कार्रवाई या तो समय पर नहीं होती या आरम्भ होने पर भी बीच में अटक जाती है। आतंकवाद संगठित अपराध होता है जो जितना जमीन के ऊपर होता है, उतना ही जमीन के नीचे। आतंकवादी कोई सिरफिरा नहीं होता जो किसी प्रतिशोध की भावना से या किसी व्यक्तिगत जुनून के वश मारकाट मचाता हो। ऐसे अपराध मानव सभ्यता के आरम्भिक दौर से ही होते रहे हैं। आतंकवाद के पीछे एक विचारधारा होती है और जिससे प्रेरित कुछ संगठन सुनियोजित तरीके से आतंकवाद का इस्तेमाल अपने राजनैतिक या साम्प्रदायिक लक्ष्यों को पाने के लिए लिए समर नीति के रूप में करते हैं। हमारे देश में आतंकवाद अलगाववादी लक्ष्य पाने के लिए आरम्भ हुआ लेकिन पूवोर्ंत्तर और कश्मीर के आरम्भिक दौर में आतंकवाद के स्वरूप में अब गुणात्मक अंतर आया है। अब यह देशों की प्रतिरक्षा समरनीति का भी अंग बन गया है। हमारे देश में आतंकवाद पाकिस्तान की भारत विरोधी समरनीति बन चुका है। यानी इसके बाकायदा अंतरराष्ट्रीय आयाम खुल गए हैं। एक चिंताजनक आयाम विभिन्न आतंकवादी गुटों के बीच व्यापक तालमेल के कारण खुल गया है। भारत जैसे विशाल देश में आंचलिक क्षेत्रों में अलगाव की प्रवृत्ति अस्वाभाविक नहीं है। पूवोर्ंत्तर, पंजाब और कश्मीर के आतंकवादी गुटों के लक्ष्यों में समानता न होते हुए भी एक समानता है कि सबका लक्ष्य भारत राष्ट्र को कमजोर करना है क्योंकि कमजोर भारत में ही उनके उद्देश्य पूरे होने की आशा की जा सकती है। इस एक उद्देश्य के लिए इन संगठनों में समरनीतिक तालमेल पैदा हो गया है। इस तालमेल में विदेशी एजेंसियो की भूमिका भी स्पष्ट है। विदेशी सहयोग और आथिर्क सहायतासे लैस संगठित तंत्र के रूप में आज आतंकवाद भारत संघ के सामने बहुत बड़ी चुनौती बन गया है। आतंकवाद राज्यों की सीमाएं नहीं मानता और न ही उसे भारत के संघीय और राज्यों के अधिकारों की चिंता है। ऐसे राष्ट्रव्यापी खतरे का सामना टुकड़ों में नहीं हो सकता है। सवाल उठता है कि क्या ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, जयललिता या नरेंद्र मोदी को नहीं मालूम कि आतंकवाद की पहुंच कहां तक है और उससे निबटने के लिए एक अखिल भारतीय पहल कीआवश्यकता है? अगर मालूम है तो क्या यह मान लें कि ये मुख्यमंत्री, जो आतंकवाद विरोधी केंद्र का विरोध कर रहे हैं नहीं चाहते कि राष्ट्र शक्तिशाली रहे? ये सभी राज्य किसी न किसी सीमा तक आतंकवाद के भुक्तभोगी हैं और इन में से कुछ तो आतंकवाद के विरुद्ध शून्य सहनशीलता के पक्षधर हैं। फिर भी अगर वे केंद्र सरकार के इस कदम का विरोध कर रहे हैं तो क्या माना जाए कि केंद्रीय कार्रवाई में ही कोई खोट है? दरअसल राज्यों को केंद्र सरकार की नीयत पर ही शक है। अपनी विसनीयता खोने के लिए केंद्र सरकार स्वयं उत्तरदायी है। केंद्र सरकार स्वयं आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में ईमानदार नहीं दिखती। महत्वपूर्ण मामलों में भी सरकार ने ऐसी धारणा बनाई है कि वह आतंकवादी घटनाओं को दलगत राजनीति के आईने से ही देखती है और कभी- कभी आतंकवादी घटनाओं का राजनीतिक इस्तेमाल भी करती है। बाटला हाउस कांड के बारे में दोमुंही नीति के कारण लोगों का असमंजस बढ़ गया है कि कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता सही हैं कि सरकार के गृहमंत्री। अफजल गुरु की याचिका पर जिस तरह सरकार टालमटोल करती रही है, उससे आतंकवाद के प्रति सरकारी गंभीरता पर संदेह स्वाभाविक है। राज्यों के साथ भी केंद्र का रवैया राजनीति प्रेरित रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकारी कदम का विरोध करते हुए कहा कि आतंकवाद हमारे लिए बहुत अहम मुद्दा है, लेकिन जब हमने राज्य में आतंकवाद विरोधी विधेयक पारित करवाना चाहा तो केंद्र के इशारे पर कई बार राज्यपाल ने उसे अस्वीकार कर दिया । अगर राज्य भरोसे लायक नहीं है तो राज्य केंद्र पर कैसे भरोसा कर सकते हैं। बात अगर केवल नरेंद्र मोदी की ही होती तो गोधरा कांड के बाद दंगों में राज्य सरकार के संदेह के घेरे में आने के कारण केंद्र के व्यवहार को तर्कसंगत ठहराया जा सकता था लेकिन केंद्र की कार्रवाई पर सबसे पहले तो बगावत का झंडा उन ममता बनर्जी ने उठाया जिनकी पार्टी केंद्र सरकार में सहयोगी पार्टी है। उनका साथ दिया ओडिशा के नवीन पटनायक ने, जिन्होंने पिछले चुनाव में ही भाजपा से नाता तोड़ दिया था। नीतीश कुमार, मोदी और जयललिता तो बाद में शामिल हो गए। सबका कहना है कि यह राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल है और इसका केंद्र दुरुपयोग कर सकता है। सवाल है कि क्या नई व्यवस्था का राजनीतिक दुरुपयोग हो सकता है? इस केंद्र के गठन का उद्देश्य आतंकवाद के बारे में सारी जानकारियां एक स्थान पर केंद्रित करना है ताकि उचित समय पर इसका उपयोग हो सके। कुछ विदेशी जासूस संगठनों की तरह यह ऐसा संगठन है जिसके पास न केवल जानकारियां हों, अपितु जो आने वाले खतरे को समय रहते भांप भी सके। लेकिन जानकारी संकलन का माध्यम केंद्रीय खुफिया ब्यूरो है। फिर इस संगठन को बिना किसी से पूछे गिरफ्तारी की भी छूट है। इस व्यवस्था के विरोधियों का कहना है कि दुनिया में जानकारी संग्रह करने वाला ऐसा कोई जासूसी संगठन नहीं जिसे अपने आप गिरफ्तारी का अधिकार भी हासिल हो। इस व्यवस्था का बेजा इस्तेमाल हो सकता है। इस मामले में जयललिता का आरोप है कि अनुभव बताता है कि इस संगठन का भी उसी तरह इस्तेमाल हो सकता है जिस तरह केंद्रीय खुफिया ब्यूरो का किया जा रहा है। जयललिता तो इसके खिलाफ अदालत तक पहुंच गई हैं। केंद्र और केंद्रीय सरकार चलाने वाली पार्टी में भरोसे का यह अभाव वर्तमान व्यवस्था लागू करने के बारे में दिखाई देता है। जिस कदम से राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल का संदेह पैदा होता हो, उसमें भी राज्यों से बातचीत किए बिना घोषणा करने के पीछे उसी एकतरफा कार्रवाई की प्रवृत्ति दिखाई देती है जिसके कारण राज्य और केंद्र सरकार में विास की इतनी बड़ी खाई पैदा हो गई है। आश्चर्य है कि केंद्र अक्सर विवाद पैदा होने के बाद ही बातचीत आरम्भ करता है। लेकिन देर से ही सही, वार्ता सहभगिता के आधार पर होनी चाहिए ताकि आतंकवाद से लड़ाई दलगत राजनीति का विवाद न बने।

एनएसजी पर 12वीं योजना में 1200 करोड़ खर्च करेगी सरकार


आतंकवाद से लड़ने के लिए मजबूत किए जा रहे राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड्स (एनएसजी) पर केंद्र सरकार 12वीं योजना में 1200 करोड़ रुपये खर्च करेगी। मुंबई में एनएसजी क्षेत्रीय केंद्र का उद्घाटन के मौके पर चिदंबरम ने एनएसजी से उम्मीद जताई कि वे आतंकवादियों की नई तकनीक से निपटने के लिए वे रूस, फ्रांस एवं इजरायल की तर्ज पर अपने आपको तैयार करें। हालांकि एनएसजी को दुनिया के बेहतरीन सुरक्षा बलों में से एक बताते हुए उन्होंने कहा कि सरकार इसे और मजबूती देने के लिए प्रतिबद्ध है। उल्लेखनीय है कि 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हुए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमले के दौरान एनएसजी को दिल्ली से मुंबई बुलाना पड़ा था। इसके बाद मुंबई पर अक्सर होने वाले आतंकी हमलों के इतिहास को देखते हुए मुंबई सहित चेन्नई, हैदराबाद एवं कोलकाता में एनएसजी के क्षेत्रीय हब शुरू करने की योजना बनाई गई थी। मुंबई में चिदंबरम के ही हाथों इसकी शुरुआत 30 जून, 2009 को ही मुंबई के छत्रपति शिवाजी विमानतल के पास कर दी गई थी। अब मुंबई उपनगर के मरोल क्षेत्र स्थित 23 एकड़ भूमि में इसे सुव्यवस्थित रूप से शुरू किया गया है। एनबीसीसी द्वारा इस केंद्र का निर्माण किया गया है। इसके अलावा इस केंद्र को विकसित करने में राज्य सरकार, पुलिस प्रशासन, एअरपोर्ट अथारिटी ऑफ इंडिया एवं सेना की भी सहायता ली गई है। उल्लेखनीय है कि 26/11 के हमले के दौरान एनएसजी ने बहुत महत्त्‍‌वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बहादुरी से लड़ते हुए एनएसजी के जवानों ने 10 में से आठ आतंकियों को मारकर होटल ताज एवं नरीमन हाउस को उनके कब्जे से मुक्त कराया था।

योजनाओं की सफलता का मंत्र


क्यों असफल हो रही हैं ग्रामीणों को रोजगार, स्वास्थ्य या शिक्षा संबंधी मनरेगा, एनआरएचएम या सर्वशिक्षा अभियान जैसी योजनाएं। अगर हम 1965 के भयंकर खाद्य संकट से उबरकर आज 251 मिलियन टन अनाज उपजाकर खाद्यान्न निर्यात करने की स्थिति में आ गए हैं तब क्यों नहीं खत्म कर सकते इन कार्यक्रमों में व्याप्त भ्रष्टाचार? किसी प्रजातंत्र में सामूहिक चेतना विभिन्न स्वरूप में विकसित होती है। अगर अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ इस चेतना के नेतृत्वकर्ता बन सकते हैं तब स्वयं भारत सरकार क्यों नहीं इन योजनाओं के प्रति जनचेतना को इतनी प्रबल बना सकती कि कोई भी सरकारी मशीनरी सही डिलीवरी करने को मजबूर हो? दरअसल दोष सरकार की सोच व समझ का है जो मीडिया का सही इस्तेमाल अपने अभिजात्यवर्गीय सोच की वजह से नहीं कर पा रही है। विविधतापूर्ण भारतीय लोकतंत्र में जहां एक तरफ राष्ट्रीय चैनलों की महत्वपूर्ण भूमिका है वहीं क्षेत्रीय चैनलों की उपादेयता को नकारना प्रजातंत्र को कमजोर करने के समान है। एक उदाहरण लें। पेट्रोल की कीमत अगर दो रुपये बढ़ती है तब समूचे देश में हाहाकार मच जाता है, विपक्ष आगबबूला हो जाता है और भारतीय राष्ट्रीय मीडिया हांफ-हांफ कर 123 करोड़ जनता के साथ हो रही ज्यादती को दिन भर दिखाता है। सरकार को कई बार झुकना पड़ता है, लेकिन ठीक दूसरी तरफ पिछले पांच वर्षो में डाई-अमोनियम फॉस्फेट यानी डीएपी खाद की कीमत आधिकारिक रूप से तीन गुना बढ़ जाती है, लेकिन एक पत्ता भी नहीं खड़कता। बिहार सहित उत्तर भारत के तमाम राज्यों में पिछले दो सालों से रासायनिक खाद की भयंकर किल्लत हो रही है, लेकिन शायद ही किसी राष्ट्रीय मीडिया की नजर में यह बात आई हो। दरअसल दोष राष्ट्रीय मीडिया का नहीं है। कुल 123 करोड़ जनता के लिए किसी भी राष्ट्रीय मीडिया का 24 घंटे में इन खबरों को समेटना संभव नहीं है। राष्ट्रीय खबरों की अपनी ही संख्या इतनी बड़ी होती है जिनमें कई बार क्षेत्रीय, लेकिन बेहद जरूरी मुद्दे राष्ट्रीय मीडिया की नजर से ओझल होते रहते हैं। किसी भी राष्ट्रीय चैनल के लिए अपने रिपोर्टिग नेटवर्क को 600 से ऊपर के जिलों में या हजारों तहसीलों तक अपने समाचार नेटवर्क को ले जाना संभव नहीं है। इसके अलावा सबसे बड़ी दिक्कत है टीआरपी का शहरी क्षेत्रों में ही केंद्रित होना। जहां देश के सात बड़े शहरों के लिए 3500 टैम मीटर्स हैं वहीं संपूर्ण भारत के लिए मात्र 6000 टैम मीटर्स लगे हैं। भारत का 65 प्रतिशत किसान जो ग्रामीण भारत में रहता है, वहां टैम मीटर इसलिए नहीं लगाए जाते हैं, क्योंकि उनकी क्रय-शक्ति उतनी नहीं है कि विज्ञापनदाता उन्हें लुभा सकें। सूचना मंत्रालय की नीति के अनुसार वही चैनल विज्ञापन पाने का हकदार होता है जिसकी टीआरपी राष्ट्रीय स्तर पर 0.02 प्रतिशत हो। नतीजा यह होता है कि बीमारू राच्यों में क्षेत्रीय चैनल जिनकी व्युअरशिप काफी अधिक है, इस वर्ग से बाहर हो जाते हैं। परिणामस्वरूप व्यापक पैमाने पर अशिक्षा, अभाव व गरीबी-जनित अज्ञानता राच्य सरकार की मशीनरी को यह मौका देती है कि मानव विकास के मद में आए केंद्रीय धन को अपनी जेब में रख ले। उत्तर प्रदेश में एनआरएचएम में 8800 करोड़ में से 5000 करोड़ का घपला और करीब आधा दर्जन हत्याएं बहुत कुछ बयां करती हैं। किसी भी समुन्नत प्रजातंत्र में सरकार के कार्यो व नीतियों के प्रति जनता को शिक्षित करने में मीडिया की एक अहम भूमिका होती है इसलिए अगर मनरेगा या एनआरएचएम सरीखे कार्यक्रमों को देश के किसी बड़े अंग्रेजी अखबार के माध्यम से जनता के बीच ले जाने का प्रयास किया जाए तब वह निरर्थक होगा। लगभग यही स्थिति है मनोरंजन चैनलों और न्यूज चैनलों के बीच में। यह सही है कि मनोरंजन चैनलों की व्युअरशिप न्यूज चैनल की तुलना में कई गुना ज्यादा है, लेकिन जिस मन:स्थिति में मनोरंजन चैनल देखा जाता है या जिस आयुवर्ग के लोगों में ऐसे चैनल ज्यादा लोकप्रिय हैं उनमें अगर कोई सरकार मनरेगा या सर्वशिक्षा अभियान के बारे में जनता को शिक्षित करना चाहती है तब वह बेमानी होगा। विडंबना यह है कि भारत सरकार अपने जनोपयोगी कार्यक्रम के प्रचार-प्रसार के लिए अपने बजट का 70 प्रतिशत हिस्सा मनोरंजन चैनलों पर खर्च करती है। विज्ञापन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में यह बार-बार कहा गया है कि मीडियम का चुनाव टारगेट व्युअरशिप को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, लेकिन भारत सरकार शायद अब तक इस मूल सिद्धांत से परिचित नहीं रही है। भारत सरकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए विज्ञापन के रूप में 300 करोड़ रुपए खर्च करती है, लेकिन उसको खर्च करने की प्रक्रिया पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा है। खबरिया चैनल और खास करके क्षेत्रीय चैनल जो संप्रेषण का एक सशक्त माध्यम हो सकते थे, सरकार लगातार उन्हें नजरअंदाज करती रही। उसको यह भी अहसास नहीं हो पाया कि देश में दोषपूर्ण टैम मीटर पर आधारित विज्ञापन नीति पूरे उद्देश्य को खारिज कर देगी। 1965 में जब भारत खाद्य के भयंकर संकट से जूझ रहा था उस समय हरित क्रांति का बिगुल बजाने में भारतीय अखबारों व रेडियो की बड़ी भूमिका रही। यह अखबारों और रेडियो की ही ताकत थी कि उसने किसानों में उत्साह पैदा किया कि 1966 में मैक्सिको से आए 1800 टन बेहतरीन किस्म के बीज का आयात किया गया। वर्तमान में जनता व सरकार के बीच में बढ़ते अविश्वास का एक मुख्य कारण है सरकार का न्यूज मीडिया विरोधी शाश्वत-भाव। उसके बाद की सरकारों ने मीडिया को लगातार शत्रु भाव से देखना शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि सरकार की अच्छी से अच्छी योजनाएं भी जनता की सामूहिक चेतना को उन योजनाओं के प्रति सुग्राह्य नहीं बना पाईं। (लेखक न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन के सचिव हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

अधिकारों पर अंकुश लगाना होगा


देश में भ्रष्टाचार सचमुच बढ़ गया है, तभी तो प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएंगे। भ्रष्टाचारियों को बख्शा नहीं जाएगा। इस दिशा में सरकार ने सख्त कदम उठाने के संकेत दिए हैं। मसलन, हर तीन वर्ष बाद सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के कार्यो की समीक्षा की जाएगी। इसके अलावा अगर वे बार-बार अपने कार्य को सही रूप से अंजाम देने में पीछे रहते हैं तो उन्हें 15 वर्ष पहले ही सेवानिवृत्त किया जा सकता है। यह एक सराहनीय कदम है, पर इस पर सख्ती से अमल हो, तभी यह कारगर सिद्ध होगा। वैसे देखा जाए तो भ्रष्टाचार हमारी देन है ही नहीं। यही वजह है कि देश के नेता इससे निपटने में अक्षम साबित हो रहे हैं। यह तो अंग्रेजों से हमें विरासत में मिला है। आज अगर देश की जनता अपना सही काम करवाने के लिए भी रिश्वत का सहारा लेती है तो उसके पीछे बेशुमार अधिकार के स्वामी देश के सरकारी अधिकारी, कर्मचारी और नेता हैं। रिश्वत न देने वाले आम आदमी को परेशान करने के लिए इनके पास इतने अधिकार हैं कि वह अपने सही काम को कराने के लिए लाख एडि़यां रगड़ ले, उसका काम कभी नहीं होगा। इस दौरान वह कई नियम-कायदों से बंधा होगा, लेकिन रिश्वत देते ही वह सारे कायदों से मुक्त हो जाता है। यह देश की विडंबना है। हमारे देश में भ्रष्टाचार कितना फैल चुका है, यह जानने के लिए किसी सर्वेक्षण की जरूरत नहीं है। इसके लिए तो अमेरिका की गेलप नामक कंसल्टेंसी फर्म की रिपोर्ट ही पर्याप्त है। इसने भारत में फैले भ्रष्टाचार के मामले पर एक सर्वेक्षण किया, जिसमें देश के विभिन्न शहरों के करीब छह हजार लोगों से बात की। 47 प्रतिशत लोगों ने माना कि देश में भ्रष्टाचार एक महामारी की तरह फैल गया है। यह स्थिति पिछले 5-10 वर्ष पहले से ज्यादा गंभीर है। अन्य 27 प्रतिशत लोगों ने भ्रष्टाचार को एक गंभीर समस्या निरुपित किया। इन लोगों का मानना था कि 5 साल पहले भी यही स्थिति थी। हाल ही में अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह से लोगों ने अपना नैतिक समर्थन दिया, उससे यह स्पष्ट है कि देश का आम आदमी इस भ्रष्टाचार से आजिज आ चुका है। देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के लिए अब वह उथल-पुथल के मूड में दिखाई दे रहा है। इस सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि देश के 78 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में अधिक फैला हुआ है। 71 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि देश के उद्योगपति भी भ्रष्टाचार के लिए जवाबदार हैं। टाइम मैग्जीन कि सर्वे के अनुसार, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में लिप्त ए. राजा को विश्व को दूसरा सबसे बड़ा भ्रष्टाचारी माना है। इसके पहले कॉमनवेल्थ गेम्स का जो घोटाला सामने आया, उसने देश के नागरिकों की सहिष्णुता को एक तरह से खत्म ही कर दिया। टेलीकॉम घोटाले ने उस पर अपनी मुहर ही लगा दी। भारतीय जनता यह मानती है कि भ्रष्टाचार के लिए सबसे बड़ा कारण सरकारी तंत्र है। गेलप के सर्वेक्षण के मुताबिक भ्रष्टाचारियों को दंड देने में सरकार पूरी तरह से विफल साबित हुई है। इन भ्रष्टाचारियों से सबसे अधिक परेशान बेरोजगार युवा हैं। 21 प्रतिशत नागरिकों ने स्वीकार किया कि वे अपने काम को करवाने के लिए रिश्वत का सहारा लेते हैं। ट्रेक डॉट इन नामक एक वेबसाइट ने भारत में भ्रष्टाचार विषय पर एक रोचक तथ्य जारी किया है। उसके अनुसार भारत में सरकारी तंत्र की रग-रग में भ्रष्टाचार व्याप्त है। नागरिकों को जिन्हें रिश्वत देनी पड़ती है, उनमें 91 प्रतिशत सरकारी अधिकारी हैं। इसमें भी 33 प्रतिशत केंद्रीय कर्मचारी हैं। 30 प्रतिशत पुलिस अधिकारी और 15 प्रतिशत राज्य के कर्मचारी हैं। दस प्रतिशत नगर पालिका, नगर निगम या ग्राम पंचायतों के कर्मचारी हैं। भारतीय प्रजा के माथे पर तीन प्रकार की गुलामी लिखी हुई है। पहली गुलामी केंद्र सरकार की, जिसमें आयकर, आबकारी, कस्टम आदि विभाग आते हैं। दूसरी गुलामी राज्य सरकार की है, जिसके हाथ में बिक्रीकर, शिक्षा, स्वास्थ्य और पुलिस विभाग आते हैं। तीसरी गुलामी स्थानीय संस्थाओं की है, जिसके पास पानी, गटर, जमीन, मकान, संपत्ति कर आदि दस्तावेज बनाने के अधिकार हैं। इस तीन प्रकार की संस्थाओं को इतने अधिक अधिकार प्रदान किए गए हैं कि वे प्रजा को कायदा-कानून बताकर इतना अधिक डरा देते हैं कि न चाहते हुए भी प्रजा को रिश्वत देनी ही पड़ती है। वास्तव में अधिकारियों को मिलने वाले असीमित अधिकारों पर अंकुश लगाया जाए तो शायद देश भ्रष्टाचारमुक्त हो सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

कैसे सुधरे हमारी नौकरशाही कैसे सुधरे हमारी नौकरशाही कैसे सुधरे हमारी नौकरशाही


देर आए दुरुस्त आए हमारे यहां पुरानी कहावत है। संभवत: इसी पर चलते हुए सरकार की ख्वाहिश है कि अब सरकारी बाबुओं के कामकाज की समीक्षा होगी। सरकारी समीक्षा की कसौटी पर जो कमजोर साबित होंगे, उनकी सेवा समाप्त कर दी जाएंगी। हाल के दौर में जिस तरह से शीर्ष सरकारी बाबुओं के भ्रष्टाचार में आकंठ डूबने से लेकर अपने राजनीतिक आकाओं के लिए किसी भी हद तक जाने के मामले सामने आ रहे हैं, आम पब्लिक के साथ-साथ सरकार भी इससे हलकान है। दरअसल, लोकतंत्र में जो कानून संसद बनाती है या जिन कल्याणकारी योजनाओं को वह लेकर आती है, उन्हें लागू करने का दायित्व इन्हीं बाबुओं पर होता है। पर 2जी घोटाले में तिहाड़ जेल की हवा खा रहे पूर्व टेलीकॉम सेके्रटरी सिद्धार्थ बेहुरा से लेकर मध्य प्रदेश के आइएएस दंपती और कई अन्य आला अफसरों ने जिस तरह से अपने पद का दुरुपयोग करके धन अर्जित किया, उससे साफ है कि हमारे यहां नौकरशाह बेलगाम होते जा रहे हैं। मध्य प्रदेश के आइएएस जोशी दंपती के ठिकानों पर छापेमारी में करीब 250 करोड़ रुपये की चल-अचल संपत्ति का पता चला है। इस रोशनी में सरकार का बाबुओं के कामकाज पर नजर रखने का कोई भी स्वागत करेगा। पर इसी व्यवस्था में कुछ ऐसे भी नौकरशाह हुए हैं, जिनकी मिसाल दी जाती है। ऐसे एक डिप्लोमेट थे एके दामोदरन, जिनका कुछ हफ्ते पहले ही दिल्ली में निधन हो गया। 1953 बैच के आइएफएस अफसर रहे दामोदरन ने ही भारत और सोवियत संघ के बीच वर्ष 1971 हुई ऐतिहासिक संधि का मसौदा तैयार किया था। आजादी के बाद भारत की विदेश नीति की रूपरेखा को दिशा देने में दामोदरन की अहम भूमिका थी। हालांकि उन्होंने अपनी लंबी सरकारी सेवा के दौरान तमाम प्रधानमंत्रियों और दूसरे अहम मंत्रियों के साथ काम किया, पर उन्हें कभी किसी का आदमी नहीं माना गया। अगर वर्तमान की बात करें तो अब दामोदरन, जेएन दीक्षित, जगमोहन, पीए हक्सर, बीके नेहरू जैसे बेहतरीन नौकरशाहों का टोटा शिद्दत के साथ महसूस हो रहा है। अब सिविल सेवा के माध्यम से आए तमाम आला अफसर नौकरी पर रहते हुए ही किसी बड़े नेता के खासम-खास बन जाते हैं, जिससे कि रिटायर होने के बाद भी उन्हें कोई बढि़या-सी पोस्टिंग मिल जाए। कुछ ऐसे भी अफसर हैं, जो सेवा में रहते हुए ही किसी दल विशेष का आदमी बनने का गौरव हासिल करके अपने बाकी भविष्य को सुरक्षित कर लेते हैं। उदाहरण के तौर पर पंजाब में पिछले महीने हुए विधानसभा चुनावों में शिरोमणि अकाली दल ने प्रदेश के पूर्व डीजीपी परमदीप सिंह गिल और राज्य के पूर्व सचिव दरबारा सिंह गुरु को टिकट देकर उनके अहसानों का बदला चुकाया। कहने की जरूरत नहीं है कि गिल और गुरु को अकाली दल ने यह सौगात क्यों दी होगी। अकालियों ने भी इनके अहसानों का ख्याल रखते हुए उन पार्टी कार्यकर्ताओं को टिकट नहीं दिया, जो सालों-दशकों से पार्टी की खिदमत कर रहे थे या जो पार्टी के नेताओं की सभाओं में दरियां बिछाते थे। हालांकि कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने अपने प्रचार के दौरान शिरोमणि अकाली दल की निंदा की कि उसने दो अफसरों को अपने पाले में इसलिए लिया, क्योंकि वे उसकी सेवा कर रहे थे। पर सच्चाई यह है कि पंजाब और महाराष्ट्र पुलिस के डीजीपी रहे जीएस विर्क कांग्रेस की तरफ से टिकट की चाहत रखते थे। वह अमरिंदर सिंह के खासम-खास हैं। यह बात दीगर है कि पार्टी ने उन्हें उपकृत नहीं किया। विर्क को दोनों प्रदेशों का डीजीपी रहने का अवसर मिला है। सीमा सुरक्षा बल के पूर्व डीजीपी प्रकाश चंद्रा ने अपने एक हालिया इंटरव्यू में कहा कि जब तक सरकार की तरफ से इस तरह का कोई कठोर नियम नहीं बनाया जाता कि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अफसर सेवा से मुक्त होने के कम से कम तीन-चार साल तक किसी पार्टी या कॉरपोरेट घराने से नहीं जुड़ेंगे, तब हमारे यहां गिल और गुरु सरीखे अफसर सामने आते रहेंगे। चंद्रा मानते हैं कि अब अफसर पैसे कमाने को लेकर इतने व्याकुल रहते हैं कि वे अपने मूल काम की अनदेखी करते हुए बड़े नेताओं की सेवा में लगे रहते हैं। जाहिर है यह गंभीर स्थिति है। यहां बात सिर्फ आला अफसरों के सियासत की दुनिया में आने तक ही सीमित नहीं है। ये अफसर कॉरपोरेट दुनिया में भी जा रहे हैं। दो साल पहले भारत सरकार के वित्त सचिव पद पर आसीन एक वरिष्ठ आइएएस अफसर ने रिटायर होने के चंद माह बाद ही एक बड़ी ऑटो कंपनी के सीईओ के पद को संभाल लिया। जाहिर है, उन्होंने उस ऑटो कंपनी की भरपूर सेवा की होगी, तब ही तो उन्हें इतने बड़े ओहदे पर रखा गया। भारत की एक प्रमुख रीयल एस्टेट कंपनी ने भी कुछ साल पहले एक वरिष्ठ आइएएस अफसर को अपने यहां बड़े पद पर रखा। कहने वाले दावा करते हैं कि उन सज्जन को सालाना दो करोड़ रुपये पगार मिलती थी। जाहिर है, हमें या किसी को इस बात से रत्ती भर भी लेना-देना नहीं है कि किसी को कितनी पगार मिलती है। सवाल तो नैतिकता का है। इस सवाल का तो जवाब उन तमाम अफसरों को देना होगा, जो सेवा में रहते हुए किसी खास नेता, राजनीतिक जमात या कॉरपोरेट घराने के लिए खुलकर काम करने लगते हैं। बदले में उन्हें इनसे रेवडि़यां मिलती हैं। कभी नौकरशाह रहे यशवंत सिन्हा और अजीत जोगी ने तो अपनी सेवा से रिटायर होने का फैसला तभी कर लिया, जब इन्हें रिटायर होने में 10-15 साल शेष थे। 1960 बैच के आइएएस अफसर यशवंत सिन्हा ने 1984 में सरकारी नौकरी को छोड़कर जनता पार्टी का दामन थामा। आइपीएस और आइएएस रहे अजीत जोगी ने भी अपने करियर के शिखर पर रहते हुए सरकारी नौकरी को छोड़कर राजनीति करने का फैसला किया। वह संभवत: पहले और एक मात्र आइएएस अफसर हैं, जो किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। देश के किसी भी अन्य नागरिक की तरह इन्हें भी किसी भी पेशे को चुनने का अधिकार है। इन्होंने किसी पार्टी में शामिल होकर कोई गलत नहीं किया। इन्होंने रिटायर होने से कुछ साल या महीने पहले नौकरी नहीं छोड़ी। भारत की सबसे बड़ी बिजली उत्पादन कंपनी एनटीपीसी के भी एक सीएमडी ने हाल के सालों में रिटायर होने के कुछ ही समय के बाद निजी क्षेत्र की बिजली उत्पादन करने वाली कंपनी में शीर्ष पद पर नौकरी कर ली। भले ही उन्होंने उस कंपनी को एनटीपीसी में रहते हुए कोई लाभ नहीं पहुंचाया हो, पर इस बात को मानेगा कौन। लंबे समय तक गांधी-नेहरू परिवार के करीबी रहे नटवर सिंह सेवा में रहते हुए आइएफएस अफसर से अधिक देश के पहले राजनीतिक परिवार के प्रति अपनी निष्ठा साबित करते थे। कहने वाले तो कहते हैं कि 1953 बैच के आइएफएस अफसर नटवर सिंह को गांधी-नेहरू परिवार से घनिष्ठता के चलते हमेशा बेहतर पोस्टिंग मिलती रही। जनता पार्टी के शासनकाल के दौरान उनके सितारे गर्दिश में आए, क्योंकि तब प्रधानमंत्री बने मोराजी देसाई उन्हें कसते रहते थे। उन्होंने जनता पार्टी के शासनकाल में अपनी परेशानियों के संस्मरण हाल ही में एक अंग्रेजी दैनिक में लिखे थे। अपने लाभ के लिए सियासत का रुख करने वाले अफसरों पर लगाम लगाने के लिए एक सुझाव यह भी आ रहा है कि इन्हें खुद ही रिटायर होने के बाद तीन साल बाद तक किसी पार्टी या कॉरपोरेट घराने से नहीं जुड़ना चाहिए। बेशक, यह सुझाव तो काम का है। पर बड़ा सवाल यह है कि इसे मानेगा कौन? वैसे भी अब दामोदरन जैसे बुद्धिमान और साफ-सुथरी छवि वाले अफसर की किसे जरूरत है। हताशा के इस माहौल में उम्मीद की किरण इसलिए नजर आ रही है कि अब सरकार को समझ आ गया है कि बिना इन अफसरों पर नजर रखे बात नहीं बनेगी। इसीलिए उसने उन अफसरों को स्थायी रूप से सेवा से रिटायर करने का मन बना लिया है, जो अपने दायित्वों का निर्वाह करने के मामले में कमजोर साबित होंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

एनसीटीसी पर बेजा हड़बड़ी


एक ओर आतंकवाद जहां जटिल समस्या का रूप लेता जा रहा है वहीं हमारे रणनीतिकारों के पास इससे निपटने के लिए प्रभावी नीति और उस पर अमल की इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है। इस क्रम में भारत सरकार ने अब आतंकवाद को देशव्यापी समस्या मानते हुए इससे निपटने के लिए एनसीटीसी यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के गठन का निर्णय लिया है, लेकिन इसके अमल में आने से पहले ही कई राज्यों द्वारा इसका विरोध शुरू होना कई सवाल खड़े करता है। इन सवालों में पहला सवाल यही है कि जब हमारे पास मल्टी एजेंसी सेंटर और राष्ट्रीय जांच एजेंसी जैसी संस्थाएं पहले से मौजूद हैं तो ऐसे में एक और नई एजेंसी एनसीटीसी के गठन का औचित्य क्या है? सरकार संस्थाओं के ऊपर संस्थाएं बनाती जा रही है, लेकिन इन्हें प्रभावी बनाने और जमीनी स्तर पर मजबूत करने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही। इसका परिणाम यह हुआ है कि हमारे पास राज्यों के पुलिस बल के अलावा दूसरे कई सशस्त्र बल और खुफिया एजेंसियां मौजूद होने के बावजूद अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही। आतंकवादी हमलों के न रुकने पर अपनी विफलता को ढकने के लिए और राजनीतिक लाभ लेने के लिए सरकार हर बार किसी न किसी नई संस्था का गठन करके जनता में संदेश देने की कोशिश करती है कि वह सतर्क है और प्रभावी उपाय किए जा रहे हैं, लेकिन वस्तुस्थिति यही है कि कहीं कुछ नहीं हो रहा होता है। यदि ऐसा होता तो इसका वास्तविक परिणाम कुछ न कुछ अवश्य दिखता। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2001 में प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली कैबिनेट समिति ने मल्टी एजेंसी सेंटर को मंजूरी दी थी, जिसे वर्ष 2009 में गठित भी कर दिया गया, लेकिन इस संस्था के अस्तित्व में आने के तीन वर्ष बाद भी स्थिति जस की तस है। कुछ ऐसा ही हाल एनआइए यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी का भी है। इस क्रम में अब कहा जा रहा है कि अमेरिका की तर्ज पर हमें भी एफबीआइ जैसी संघीय पुलिस की आवश्यकता है, लेकिन हम भूल जाते हैं कि भारत की तुलना अमेरिका से नहीं हो सकती। अमेरिका की आबादी जहां करीब 31 करोड़ है वहीं भारत की आबादी 120 करोड़ से भी ज्यादा है। प्रति एक हजार आबादी पर पुलिस बलों की संख्या के मामले में भी हम अमेरिका से काफी पीछे हैं और सबसे बड़ा सवाल कि अमेरिका जितना पैसा अपनी संघीय पुलिस पर खर्च करता है, क्या हम उतना पैसा खर्च करने की स्थिति में हैं और क्या वैसे दूसरे तमाम संसाधन हमारे पास मौजूद हैं। यदि एनसीटीसी की ही बात की जाए तो इसका बजट लगभग ढाई हजार करोड़ रुपये का होगा। मेरा मानना है कि हमारे पास जो भी संस्थाएं पहले से हैं यदि उन्हें ही ठीक तरह से उपयोग किया जाए तो आतंकवाद समेत दूसरी तमाम चुनौतियों से निपटा जा सकता है। आखिर हम क्यों आइबी और रॉ को कमतर आंकने की भूल कर रहे हैं। जयपुर विस्फोट के बाद महाराष्ट्र एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे से जयपुर में मेरी मुलाकात हुई थी। उस दौरान मैंने उनसे पूछा था कि क्या अलग-अलग राज्यों में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने में उन्हें किसी तरह की परेशानी होती है और क्या उन्हें मिलने वाली खुफिया सूचनाएं पक्की होती हैं? इसके प्रत्युत्तर में उनका कहना था कि आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई में उन्हें अलग-अलग राज्यों से तालमेल बनाने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होती और न ही इसमें कोई और समस्या आड़े आती है। जहां तक खुफिया सूचनाओं की बात है तो अपने नेतृत्व में सुलझाए गए कुल 13 आतंकवादी मामलों में 9 मामले आइबी की सूचना के आधार पर और 2 मामले राज्य पुलिस की मदद से और एक मामला औचक रूप से हल होने की बात उन्होंने स्वीकार की। इससे साफ है कि केंद्र सरकार द्वारा दिया जा रहा यह तर्क कि एकीकृत राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी न होने से आतंकवादियों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करने में दिक्कत होती है और इसमें राज्य की पुलिस अथवा दूसरे संगठनों की मदद देर से मिलती है, एक झूठ के अलावा और कुछ नहीं। कुछ लोगों का तर्क है कि टाडा और पोटा जैसे आतंकवाद निरोधक कानून अब अस्तित्व में नहीं हैं, जिसका फायदा आतंकवादियों को मिल रहा है और वे बेधड़क अपने मंसूबों को अंजाम दे रहे हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूं। जब ये कानून अस्तित्व में थे तो इनका उपयोग किसके खिलाफ किया गया? टाडा और पोटा के अंतर्गत आतंकवादियों से कहीं ज्यादा आम लोगों को कैद किया गया और बाद में इसका इस्तेमाल राजनीतिक दुश्मनी निकालने के लिए होने लगा। आतंकवाद के खिलाफ सिर्फ कठोर कानून बना देने से क्या होगा जब तक कि हम ऐसा प्रभावी तंत्र और राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं विकसित करते जिससे आतंकवाद का उन्मूलन हो सके। एनसीटीसी पर राज्यों के विरोध को खारिज नहीं किया जा सकता। यदि यह संस्था अस्तित्व में आती है तो राज्यों की अपनी निजी स्वतंत्रता और अधिकार प्रभावित हो सकते हैं। इस बात की क्या गारंटी है कि केंद्र से संचालित यह संस्था स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से काम कर पाए, जबकि दूसरी तमाम ऐसी संस्थाओं के दुरुपयोग के उदाहरण सामने हों। इनमें सीबीआइ का उदाहरण भी एक है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सीबीआइ भी किसी राज्य में बिना संबंधित राज्य सरकार की अनुमति से जांच कार्य शुरू नहीं कर सकती। एक बार उसे जांच की अनुमति मिल जाती है तो ही वह मिले सबूतों के आधार पर किसी से पूछताछ कर सकती है, गिरफ्तारी कर सकती है और अभियोजन का काम शुरू कर सकती है, जबकि एनसीटीसी के मामले में ऐसा नहीं है। एनसीटीसी के गठन के लिए हवाला दिया जा रहा है कि गैरकानूनी गतिविधि निवारक कानून, 1967 के 43 ए के तहत केंद्र को यह अधिकार है कि वह आवश्यक महसूस होने पर देश के विभिन्न हिस्सों में किसी की भी गिरफ्तारी कर सकती है और इसके लिए राज्यों की अनुमति आवश्यक नहीं। इस कानून की यह व्याख्या सही नहीं, क्योंकि संविधान में राज्यों को केंद्र के अनुचित हस्तक्षेप से संरक्षण मिला हुआ है। यहां तक कि सीआरपीएफ अथवा अ‌र्द्धसैनिक बलों को भी राज्यों की अनुमति के बिना तैनात नहीं किया जा सकता। जाहिर है ऐसा होने पर राज्यों के पास संघीय ढांचे को कमजोर करने और उससे छेड़छाड़ करने के लिए अदालत में जाने का रास्ता खुला हुआ है। कुल मिलाकर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को राजनीतिक अहम का शिकार बनाया जा रहा है, जो किसी भी तरह ठीक नहीं। यह आवश्यक है कि एनसीटीसी पर तार्किक बहस के बाद आम सहमति तक पहुंचा जाए और इसके बाद ही इस पर फैसला हो। (लेखक आतंकवाद प्रतिरोधी नीतियों के विश्लेषक हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

Saturday, February 18, 2012

बाल भुखमरी जारी रखने वाला बिल


राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक-2011 संसदीय प्रक्रिया के तहत संसद की स्थाई समिति के पास भेज दिया गया है। इस विधेयक का मकसद देश से भुखमरी और कुपोषण को मिटाना है; परंतु मौजूदा रूप में यह विधेयक यदि क़ानून बना तो देश में ये दोनों संकट बरकरार रहेंगे। कुपोषण, जिसे प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय शर्म कहा है, विकास के दावों पर काले धब्बे की तरह टिमटिमाता रहेगा, और जैसा कि होता है बहुत बहस के बाद इसे हमेशा के लिए बनी रहने वाली समस्या के रूप में मान्यता दे दी जाएगी। कुपोषण सबसे पहले बच्चों को खाता है और फिर समाज को। हमें यह जरूर देखना चाहिए कि क्या यह विधेयक बच्चों की खाद्य सुरक्षा पर कोई ईमानदार पहल करता है? जवाब है-नहीं बच्चों की खाद्य सुरक्षा का मतलब है, उनकी उम्र और शारीरिक विकास की जरूरत के मुताबिक पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराना। बच्चों को यदि सभी तरह के पोषक तत्व, विटामिन, वसा, कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटिन्स और मिनरल्स नहीं मिलते तो यह तय है कि वे पूरी तरह से पनप नहीं पाएंगे। जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून की बात हो रही है, तब जरूरी है कि हम ऐसा क़ानून बनाएं जो बच्चों की इन जरूरतों को विविध प्राकृतिक खाद्य पदार्थों से पूरा करने में सक्षम हो। बच्चों की पोषण संबंधी जरूरतें विविध खाद्यान्नों, दालों, खाद्य तेल, अंडे, मांस, फल-सब्जियों, दूध और कंद के जरिये पूरी होनी चाहिए। केंद्रित खाद्यान्न उत्पादन व्यवस्था से गड़बड़ी यदि देश में खाद्यान उत्पादन व्यवस्था केंद्रीयकृत और कमज़ोर होगी तो बच्चों के पोषण के अधिकार का उल्लंघन होता रहेगा। मौजूदा विधेयक के प्रावधान कुपोषण फैलाव को रोकने वाले क़ानून की भूमिका नहीं निभा पाएगा। एक तरफ यह पोषण की सुरक्षा नहीं दे रहा है, तो वहीं दूसरी ओर, इसमें कुपोषण के सामुदायिक प्रबंधन की कोई चर्चा नहीं की गई है। वर्तमान स्थिति में आंगनवाड़ी और मध्याह्न भोजन योजना में ढांचागत बदलावों की जरूरत है। इनके बिना भोजन का अधिकार एक और औपचारिकता बन कर रह जाएगा। खाद्य असुरक्षा का प्रत्यक्ष कारण आजीविका की असुरक्षा और संसाधनों पर से लोगों के घटते हक हैं। इसलिए बच्चों की खाद्य असुरक्षा को उन नीतियों की संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है, जिनके कारण प्रदेश के बच्चों में भुखमरी और पोषण की असुरक्षा लगातार बढ़ती जा रही है। कुपोषण को खत्म करने के सभी प्रयास ज्यादा संस्थाओं और केन्द्रों की स्थापना के साथ जुड़े रहे हैं। हमें कुपोषण और भुखमरी के बुनियादी कारणों (जैसे कृषि और खाद्यान्न उत्पादन के संकट, केवल गेहूं और चावल के उत्पादन को प्रोत्साहन, स्थानीय खाद्य सुरक्षा व्यवस्था पर नीति बनाने वालों की कोई समझ न होना और केन्द्रीयकरण की नीतियां बनना, दालों और खाद्य तेलों तक लोगों की पंहुच कम होना;) को ईमानदारी से समझना और स्वीकार करना होगा। यदि यह विधेयक इन पक्षों पर मौन रहता है, तो तय है कि यह क़ानून बिलकुल बेकार साबित होगा। गरीबी से कुपोषण कि कुपोषण गरीबी? गरीबी हमारे लिए बड़ी चुनौती है; परंतु हमें इस सवाल का जवाब तो खोजना ही होगा कि गरीबी के कारण कुपोषण बढ़ रहा है या फिर कुपोषण के कारण गरीबी बढ़ रही है। मध्य प्रदेश के संदर्भ में हमारा अनुभव बताता है कि कुपोषित होने के कारण लोगों की शारीरिक और मानसिक क्षमताएं बाधित हुई हैं जिनके कारण वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं और आजीविका के साधनों का उपयोग भी नहीं कर पा रहे हैं। उनका कुपोषण दूर करना होगा, तभी वे विकास की धारा में शामिल हो पाएंगे। मध्य प्रदेश ही एक ऐसा राज्य है, जहां वर्ष 1990 के स्थिति में 43.56 प्रतिशत लोग गरीब थे, जो वर्ष 2010 में बढ़ कर 48.6 प्रतिशत हो गए। यही वह दौर भी था, जब कुपोषण भी 54 प्रतिशत से बढ़ कर 60 प्रतिशत हो गया। सह्त्राब्दी विकास लक्ष्यों के तहत गरीबी के स्तर को 43.56 प्रतिशत से घटा कर 21.78 प्रतिशत पर लाया जाना था, परंतु हम इस लक्ष्य से बहुत दूर होते गए हैं। इसका मतलब है कि जब तक खाद्य असुरक्षा और कुपोषण को पहले दूर नहीं किया जाएगा, तब तक न तो गरीबी कम होगी और न ही विकास के दावों पर विास किया जा सकेगा। सरकार को यह कहना होगा कि बच्चों को कुपोषण और भुखमरी से मुक्त करने के लिए आर्थिक संसाधनों की कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। खाद्य सुरक्षा विधेयक का आधार वक्तव्य राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2011 का आधार वक्तव्य कहता है, यह विधेयक मानव जीवन चक्र में सस्ती दर पर पर्याप्त मात्र में गुणवत्तापूर्ण भोजन के जरिये खाद्य और पोषण सुरक्षा उपलब्ध करने के मकसद से पेश किया जा रहा है, जिससे लोग सम्मानजनक जीवन जी सकें। लेकिन विधेयक बच्चों के भोजन के अधिकार को एकीकृत बाल विकास परियोजना और दोपहर भोजन योजना के दायरे तक ही सीमित करके देखता है। आधार वक्तव्य के बाद पूरे विधेयक में कहीं पर भी इस मंशा को लागू करने वाले प्रावधान दिखाई नहीं देते हैं। सुप्रीम कोर्ट छह साल पहले यह निर्देश दे चुका है कि एकीकृत बाल विकास परियोजना का गुणवत्तापूर्ण सर्वव्यापीकरण किया जाए परंतु केंद्र सरकार ने कहीं पर इसका उल्लेख नहीं किया है। इसका असर आज की पीढ़ी पर भी पढ़ेगा और भावी पीढ़ी पर भी। प्रस्तावित विधेयक के विश्लेषण से पता चलता है कि इसमें बच्चों और महिलाओं के नज़रिए से बनाया नहीं गया है। यह क़ानून बच्चों को कानूनी हकदार नहीं बल्कि कुछ योजनाओं का हितग्राही बनाए रखेगा। गरीबी रेखा और बच्चों के भोजन का अधिकार पिछले 15 वर्षो में भारत सरकार गरीबी के जो अनुमान लगाती रही, वे कभी भी वास्तविकता के करीब नहीं रहे। 1996 में भारत में 36 प्रतिशत परिवारों को गरीब कहा गया था और ठीक पांच वर्ष बाद यानी 2002 में सरकार ने बताया कि अब 26 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। एक तरफ तो भुखमरी बढ़ रही थी, रोज़गार घट रहे थे, कुपोषण में कोई गिरावट नहीं हो रही थी पर सरकार के मुताबिक गरीबी कम हो रही थी। यह तर्क भारत के सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना। तब केंद्र को मानना पड़ा कि देश में गरीबों की संख्या 36 फीसद पर ही बरकरार है। लेकिन यह आंकड़ा भी सही नहीं माना जा सकता क्योंकि अर्जुन सेन गुप्ता समिति ने वर्ष 2005-06 में बताया कि भारत में 77 प्रतिशत जनसंख्या केवल 20 रुपये प्रतिदिन खर्च करके जिंदा रहती है। उस दौर में योजना आयोग की परिभाषा के मुताबिक़ गरीब उन्हें ही माना गया जो गांव में रोजाना 15 रुपये और शहर में 20 रुपये से कम खर्च कर पा रहे थे। प्रोफेसर सेनगुप्ता ने एक तरह से यह सिद्ध किया कि यदि गांव के स्तर पर भी 20 रुपये के खर्च को जीवन जीने का न्यूनतम खर्च मान लिया जाए तो गरीबी की रेखा में 41 प्रतिशत जनसंख्या जुड़ जाएगी। सरकार ने इस संख्या को कम करने के लिए खर्च की सीमा को नीचे रखा। ऐसे में गरीबी की चयन की प्रक्रिया कभी भी दोषमुक्त नहीं हो पाई। केवल मध्य प्रदेश में ही 27 लाख परिवार इस विसंगति के कारण सस्ते राशन, सामाजिक सुरक्षा और अन्य अधिकारों से वंचित बने रहे। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2011 की कोई भी विसंगति बच्चों के पोषण और भोजन के अधिकार को वयस्कों से ज्यादा प्रभावित करेगी। गरीबी रेखा से हटाने वाली सूची !
गरीबी रेखा की सूची में प्राथमिक और सामान्य और इसके अलावा बचे परिवारों की श्रेणियों का निर्धारण योजना आयोग के जिन अनुमानों के आधार पर हो रहा है, उनके कारण 31 करोड़ लोग प्राथमिक परिवार की श्रेणी से बाहर होने वाले हैं। इन 31 करोड़ लोगों में से 4.5 करोड़ की उम्र छह वर्ष से कम है। यदि एपीएल और बीपीएल के प्रावधान को मिटाकर इस क़ानून का सर्वव्यापीकरण नहीं किया गया तो 4.5 करोड़ बच्चे सम्मानजनक जीवन के हक़ से सीधे तौर पर वंचित रह जाएंगे। देश की 121 करोड़ जनसंख्या में से लगभग 63 करोड़ लोगों को इस क़ानून का लाभ मिलेगा जबकि अभी 93.17 करोड़ लोगों (वर्तमान जनसंख्या का 77 प्रतिशत) को पर्याप्त भोजन व पोषण नहीं मिल रहा है। इस नज़रिए से यह क़ानून लक्षित नहीं बल्कि सार्वभौमिक होना चाहिए। केवल खाद्यान्न से नहीं मिटेगा कुपोषण राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2011 कहता है कि प्राथमिक परिवारों को प्रति व्यक्ति सात किलो के हिसाब से सस्ता राशन दिया जाएगा और सामान्य परिवारों को तीन किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह खाद्यान्न मिलेगा। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के मानकों के मुताबिक़ पांच सदस्यीय परिवार को लगभग 49 किलो खाद्यान्न की जरूरत होती है। परंतु यह क़ानून ऐसे गरीब परिवारों को अधिकतम 35 किलो खाद्यान्न उपलब्ध करवाएगा। लगभग 25 प्रतिशत जनसंख्या यानी 30 करोड़ लोगों को सामान्य परिवारों की श्रेणी में रखा गया है। इन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (खाद्यान्न का वह मूल्य जो सरकार किसानों को देती है) से आधी कीमत पर तीन किलो प्रति व्यक्ति प्रतिमाह के हिसाब से खाद्यान्न मिलेगा। यानी पांच सदस्यों के एक परिवार को केवल 15 किलो ही खाद्यान्न मिल पाएगा। भोजन का यह अभाव सबसे पहले बच्चों पर कुअसर डालेगा। बिना तेल और दाल के कोई खाद्य सुरक्षा नहीं देश में बाल कुपोषण का एक बड़ा कारण लोगों के भोजन में प्रोटीन और वसा या चर्बी का अभाव है। यह पोषक तत्व हमें दालों और खाद्य तेल से मिलते हैं। खाद्य सुरक्षा विधेयक केवल अनाज के हक़ की बात करता है, जिनसे प्रोटीन और वसा की जरूरतें पूरी नहीं हो पाएंगी। जब तक खाद्यान्न के साथ-साथ लोगों को इस क़ानून के तहत खाने का तेल और दालें नहीं दिए जाएंगे, इस विधेयक की शुरुआती पंक्तियों में पोषण की सुरक्षा के दावे के मायने नहीं होंगे। बच्चों के नज़रिए से इस विधेयक की समीक्षा आवश्यकता है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2011 में बच्चों के लिए ऐसे प्रावधान शामिल किए जाएं जिनसे वे भुखमरी के साए से मुक्त हो सकें।
(लेखक भोजन के अधिकार अभियान के सक्रिय कार्यकर्ता और शोधकर्ता हैं)